झाड़ू बनाते कारीगर (फोटो नवभारत)
Bhandara Broom Workers News: लक्ष्मी का प्रतीक माने जाने वाले झाड़ू की पूजा दीपावली पर की जाती है। लेकिन विडंबना यह है कि इन्हीं झाड़ुओं को तैयार करने के लिए दिन-रात मेहनत करने वाली महिलाओं और मजदूरों के घरों में आज भी गरीबी और दरिद्रता का अंधकार छाया हुआ है।
हर साल की तरह इस वर्ष भी छत्तीसगढ़ से झाड़ू बनाने वाले परिवार दीपावली के अवसर पर भंडारा जिले में पहुंचे हैं। ये परिवार राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे अस्थायी झोपड़ियां बनाकर रहते हैं और पूरा परिवार दिन-रात झाड़ू बनाने में जुटा रहता है।
मूल रूप से मातंग और बुरड समाज के लोग सिंदी (पाम) के पत्तों से झाड़ू तैयार करने का काम करते हैं। भंडारा शहर और आसपास के इलाकों में दिवाली से पहले झाड़ू विक्रेताओं की अस्थायी बस्तियां बस जाती हैं।
ये लोग सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय कर दो वक्त की रोटी के लिए यहां आते हैं। छोटे-बड़े सभी सदस्य बच्चों से लेकर वृद्धों तक दिनभर झाड़ू तैयार करने में लगे रहते हैं।
पहले तार से बंधे, मजबूत और लचीले सिंदी के झाड़ू की भारी मांग रहती थी। परंतु अब प्लास्टिक और फाइबर के झाड़ू बनने लगे है। इन झाडू ने पारंपारिक व्यवसाय को छीन लिया है।
झाड़ू बनाने वाले कारीगर आनंदराव और देवचंद ने बताया कि पहले हमारे हाथ से बने झाड़ू की खूब बिक्री होती थी, लेकिन अब मेहनत के बावजूद उसकी कीमत नहीं मिलती। अगर लोग फिर से सिंदी के झाड़ू खरीदें, तो हमारी भी दिवाली रोशन हो सकती है।
दिवाली के अवसर पर झाड़ू की पूजा करने की परंपरा आज भी शुरू है, लेकिन अब यह परंपरा केवल प्रतीकात्मक रह गई है। आधुनिक युग में प्लास्टिक और ब्रांडेड झाड़ुओं की मांग बढ़ने से पारंपरिक झाड़ू कारीगरों की आजीविका खतरे में पड़ गई है।
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सिंदी के पत्तों से तैयार पारंपरिक झाड़ू पर्यावरण के लिए पूरी तरह अनुकूल हैं। यह न केवल सस्ते होते हैं, बल्कि खराब होने के बाद मिट्टी में गलकर जैविक खाद बन जाते हैं। इसके विपरीत, प्लास्टिक झाड़ू प्रदूषण बढ़ाते हैं और नष्ट नहीं होते।
झाड़ू तैयार करने की प्रक्रिया बेहद कठिन होती है सिंदी के पत्ते तोड़ना, उन्हें धूप में सुखाना, कांटे निकालना और फिर हाथों से रस्सी बनाकर झाड़ू तैयार करना। यह पारंपरिक कला अब समाप्ति की कगार पर है।
बाजार में प्लास्टिक झाड़ुओं की बाढ़ आने से इन मेहनती कारीगरों का रोजगार धीरे-धीरे छिनता जा रहा है। अगर लोग एक बार फिर से स्थानीय, हाथ से बने, पर्यावरण-हितैषी झाड़ू अपनाएं, तो इन गरीब परिवारों की दीपावली भी सचमुच रोशन हो सकती है।