प्रतीकात्मक तस्वीर, फोटो: सोशल मीडिया
जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव के नोटिस पर लोकसभा में सत्ताधारी दल के 152 सांसदों के हस्ताक्षर थे और राज्यसभा में विपक्ष की ओर से लाए गए इस प्रस्ताव को 50 से अधिक सांसदों का समर्थन मिला था। जस्टिस वर्मा के खिलाफ यह कदम कथित कैशकांड के चलते उठाया गया है।
इसी मामले को लेकर सोमवार को ही दोनों सदनों में अलग-अलग लेकिन समान प्रस्ताव प्रस्तुत किए गए। राज्यसभा में सभापति जगदीप धनखड़ ने इसकी पुष्टि करते हुए कहा कि नोटिस को नियमों के अनुरूप आवश्यक न्यूनतम समर्थन प्राप्त है। उन्होंने बताया कि 50 से अधिक सांसदों द्वारा साइन किया गया यह नोटिस उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को पद से हटाने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए पर्याप्त है।
अगर किसी भी सदन में न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग का नोटिस पेश किया जाता है और वह आवश्यक सदस्य संख्या से समर्थित होता है तो सभापति या लोकसभा अध्यक्ष संबंधित पक्षों से विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय ले सकते हैं कि नोटिस को स्वीकार करना है या अस्वीकार। अगर प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है तो जांच के लिए एक तीन सदस्यीय समिति का गठन किया जाता है।
आमतौर पर इस समिति में तीन सदस्य होते हैं एक सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश ( इसमें मुख्य न्यायाधीश भी हो सकते हैं), एक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और एक प्रमुख न्यायविद। यह समिति न्यायाधीश के खिलाफ लगाए गए आरोपों की जांच करती है।
राज्यसभा में सभापति ने कहा कि जब किसी न्यायाधीश को हटाने का प्रस्ताव दोनों सदनों में एक ही दिन पेश किया जाता है तो यह संसद की प्रॉपर्टी बन जाता है। ऐसे मामलों में जांच समिति का गठन तभी होता है जब दोनों सदन उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते हैं। यदि अलग-अलग दिन प्रस्ताव लाए जाते हैं तो बाद में दिया गया प्रस्ताव स्वतः अमान्य हो जाएगा।
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एक बार समिति का गठन हो जाने के बाद संबंधित न्यायाधीश को उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों और उनके आधारों की जानकारी दी जाती है। उन्हें अपने पक्ष में लिखित जवाब देने का मौका भी दिया जाता है। अगर आरोपों में शारीरिक या मानसिक अक्षमता का उल्लेख होता है तो मेडिकल परीक्षण कराए जाने का निर्देश दिया जा सकता है। इन सभी के दौरान केंद्र सरकार, अध्यक्ष या सभापति की ओर से एक वकील नियुक्त किया जा सकता है जो समिति के सामने मामले की पैरवी करेगा।
नोटिस मिलने के बाद राज्यसभा के सभापति और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के पास निर्णय लेने का अधिकार था। लेकिन उसी रात स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया, जिससे पूरे घटनाक्रम में एक अप्रत्याशित मोड़ आ गया।