पूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायणन (सोर्स-सोशल मीडिया)
नवभारत डेस्क: देश की राजनीति में कई ऐसे राजनेता हुए हैं जिनका सफरनामा किसी रोमांचक कहानी से कम नहीं लगता। आज यानी रविवार 27 अक्टूबर को एक ऐसे ही सियासतदान की 104वीं जयंती है जिसने गरीबी की गोद से देश के प्रथम नागरिक बनने तक का सफर तय किया। जिसके कीर्तिमानों की दास्तान ऐसी है कि हो सकता है आप सुनकर यकीन भी न कर पाएं। लेकिन यही हकीकत है। हम बात कर रहे हैं भारत के दसवें राष्ट्रपति केआर नारायणन की।
आज यानी 27 अक्टूबर को केआर नारायणन की जयंती है। वैसे तो वे देश के पहले दलित राष्ट्रपति थे, लेकिन स्कूल से लेकर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स तक की उनकी शिक्षा में उनकी जाति की कोई भूमिका नहीं रही। केआर नारायणन भारतीय विदेश सेवा से सेवानिवृत्त होने के बाद राजनीति में आए। वे लगातार तीन बार केरल से सांसद रहे, राजीव गांधी की सरकार में कैबिनेट मंत्री बने और फिर उपराष्ट्रपति बने। इसके बाद 1997 में वे देश के पहले दलित राष्ट्रपति बने।
केआर नारायण का जन्म 27 अक्टूबर 1920 को केरल के एक गांव उझावूर के एक दलित परिवार में हुआ था। उनका परिवार परवन जाति से ताल्लुक रखता था। परिवार का मुख्य पेशा नारियल फोड़ना था। नारायण के पिता कोचेरिल रमन एक जाने-माने आयुर्वेदिक डॉक्टर थे। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इसके बावजूद पिता शिक्षा के महत्व को बखूबी समझते थे। उन्होंने नारायणन का दाखिला उझावूर के ही एक प्राइमरी स्कूल में करा दिया। नारायणन ने 1937 में सेंट मैरी हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की। कोट्टायम के सीएमएस स्कूल से इंटरमीडिएट करने के बाद उन्होंने त्रावणकोर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी ऑनर्स की डिग्री हासिल की।
इसके बाद उन्होंने पत्रकार के तौर पर काम किया रकम जुटाई और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पढ़ाई पूरी की। वहां से लोटकर उन्हें पंडित नेहरू ने विदेश सचिव नियुक्त कर दिया। जिससे रिटायर होने के बाद केआर नारायणन इंदिरा गांधी के कहने पर राजनीति में आए और कांग्रेस में शामिल हो गए। केआर नारायणन ने 64 साल की उम्र में पहली बार चुनाव लड़ा। वे केरल की ओट्टापलल सीट से लोकसभा के लिए चुने गए। उन्होंने इस सीट से लगातार तीन बार चुनाव जीता। सांसद बनने के बाद वे राजीव गांधी की सरकार में कैबिनेट मंत्री बने।
राजीव गांधी सरकार में नारायणन ने विदेश मंत्रालय के साथ-साथ विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग भी संभाला। बाद में कांग्रेस पार्टी 1989 में सत्ता से बाहर हो गई। नारायणन 21 अगस्त 1992 को सर्वसम्मति से भारत के उपराष्ट्रपति चुने गए। उनके नाम की सिफारिश पूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल के नेता वीपी सिंह ने की थी। बाद में नरसिम्हा राव ने भी उनके नाम का समर्थन किया। वामपंथी दलों ने के.आर. नारायणन को उपराष्ट्रपति बनाने में समर्थन दिया था। वर्ष 1997 में जब तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा का कार्यकाल समाप्त होने वाला था, तब सवाल यह था कि अगला राष्ट्रपति कौन होगा।
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हालांकि, उपराष्ट्रपति के तौर पर के.आर. नारायण को ही अगले राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार माना जा रहा था। लेकिन कांग्रेस कार्यसमिति ने तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष सीताराम केसरी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुनने के लिए अधिकृत किया। वहीं विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की ओर से यह फैसला लेने की जिम्मेदारी पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी को दी गई। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी और संयुक्त मोर्चा के संयोजक एन. चंद्रबाबू नायडू ने एक उच्चस्तरीय बैठक की और के.आर. नारायण के नाम पर सहमति जताई।
इसके बाद भाजपा ने भी नारायणन को समर्थन देने का फैसला किया। इससे नारायण का राष्ट्रपति पद पर चुना जाना लगभग तय हो गया। वर्ष 1997 में जब के.आर. नारायणन को कांग्रेस यानी संयुक्त मोर्चा की ओर से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया, उस समय भाजपा ने भी नारायणन का समर्थन किया था। हालांकि, उस समय विश्व हिंदू परिषद ने के.आर. नारायणन के दलित होने पर सवाल उठाए थे। विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंघल ने आरोप लगाया था कि नारायणन ईसाई हैं। राष्ट्रपति चुनाव में केआर नारायणन रिकॉर्ड 956,290 वोटों के साथ भारत के दसवें राष्ट्रपति चुने गए।
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उनके एकमात्र प्रतिद्वंद्वी पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की जमानत जब्त हो गई। शेषन को 50,631 वोट मिले। इस चुनाव में पूर्व नौकरशाह शेषन को शिवसेना और कुछ निर्दलीय विधायकों का समर्थन हासिल था। रिटर्निंग ऑफिसर एस गोपालन के मुताबिक, उस समय तक हुए किसी भी राष्ट्रपति चुनाव में मूल्य के लिहाज से नारायणन को सबसे ज्यादा वैध वोट मिले थे। केआर नारायणन ने कई किताबें भी लिखीं। नारायणन की किताबों में ‘इंडिया एंड अमेरिका एसेज इन अंडरस्टैंडिंग’, ‘इमेजेज एंड इनसाइट्स’ और ‘नॉन-अलाइनमेंट इन कंटेम्पररी इंटरनेशनल रिलेशंस’ शामिल हैं।
नारायणन को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कार भी मिले। 1998 में उन्हें न्यूयॉर्क के द अपील ऑफ कॉन्शियस फाउंडेशन की ओर से ‘वर्ल्ड स्टेट्समैन अवॉर्ड’ दिया गया। अमेरिका की टोलेडो यूनिवर्सिटी ने नारायण को डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया। वहीं ऑस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय ने नारायण को ‘डॉक्टर ऑफ लॉज़’ की उपाधि से सम्मानित किया। नारायण ने तुर्की के सैन कार्लोस विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त की। 2005 में नारायण की तबीयत बहुत खराब हो गई। निमोनिया के कारण उनकी किडनी ने काम करना बंद कर दिया। 9 नवंबर 2005 को दिल्ली के आर्मी रिसर्च एंड रेफरल अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली।