जस्टिस प्रशांत, फोटो: सोशल मीडिया
Justice Prashant Kumar: सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज की न्यायिक क्षमता पर गंभीर प्रश्न उठाते हुए उनके आपराधिक मामलों की सुनवाई करने पर रोक लगा दी है। यह अभूतपूर्व निर्देश सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश पर कड़ी आपत्ति जताते हुए पारित किया, जिसमें हाईकोर्ट ने एक आपराधिक शिकायत को यह कहते हुए रद्द करने से इनकार कर दिया था कि धन की वसूली के लिए सिविल मुकदमे का उपाय प्रभावी नहीं है।
जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने हाईकोर्ट के उस आदेश को “सबसे खराब और गलत आदेशों में से एक” बताया। अदालत ने कहा कि आदेश पारित करने वाले जज को उनकी सेवानिवृत्ति तक किसी भी आपराधिक मामले की स्वतंत्र सुनवाई नहीं सौंपी जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार द्वारा पारित उस आदेश के खिलाफ अपील पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें आपराधिक दंड संहिता की धारा 482 के तहत धारा 406 (विश्वासघात) के तहत जारी समन रद्द करने की याचिका खारिज कर दी गई थी। हाईकोर्ट ने माना था कि धन की वसूली के लिए सिविल मुकदमे का रास्ता उपलब्ध है, इसलिए आपराधिक कार्यवाही रोकने का आधार नहीं बनता।
सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को पूरी तरह खारिज करते हुए कहा कि इस तरह के आपराधिक मामले निजी प्रतिशोध के लिए नहीं होने चाहिए और कोर्ट को प्रथम दृष्टया जांच करनी चाहिए कि मामला सिविल प्रकृति का है या आपराधिक।
हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मामले को दोबारा सुनवाई के लिए दूसरी एकल पीठ को भेज दिया है।
संबंधित जज को सीनियर जज की निगरानी में ही अब न्यायिक काम सौंपा जाएगा। सुप्रीम कोर्ट का यह कदम न्यायिक जवाबदेही और गुणवत्ता सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण संदेश माना जा रहा है।
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कुल मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि गैर-जिम्मेदाराना और कानून की मूलभूत समझ से परे किए गए फैसलों को किसी भी स्तर पर स्वीकार नहीं किया जाएगा।