रेनो-फॉक्सवैगन की बिक्री में गिरावट (फोटो- सोशल मीडिया)
नई दिल्ली: रेनो, फॉक्सवैगन और स्कोडा जैसे प्रमुख यूरोपीय कार ब्रांडों की भारतीय बाजार में स्थिति खराब हो गई है। पिछले तीन वित्त वर्षों के आंकड़ों से पता चलता है कि इनकी बिक्री में लगातार गिरावट आई है। यह गिरावट ग्राहकों की प्राथमिकताओं में बदलाव और बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण देखी जा रही है।
वैश्विक वाहन उद्योग से जुड़े आंकड़े और विश्लेषण प्रदान करने वाली जेएटीओ डायनेमिक्स के अनुसार, भारतीय बाजार में रेनो की बिक्री में सबसे ज्यादा गिरावट दर्ज की गई है। 2024-25 में रेनो की बिक्री घटकर 37,900 इकाई रह गई, जबकि 2023-24 में यह 45,439 और 2022-23 में 78,926 इकाई थी।
2024-25 में स्कोडा ने भारतीय बाजार में 44,866 गाड़ियां बेचीं, जो 2023-24 की 44,522 इकाइयों की तुलना में मामूली बढ़त है। हालांकि, यह बिक्री 2022-23 में दर्ज 52,269 इकाइयों की तुलना में काफी कम है। वहीं, फॉक्सवैगन ब्रांड की बिक्री 2024-25 में 42,230 यूनिट रही। इससे पिछले साल यानी 2023-24 में कंपनी ने 43,197 और 2022-23 में 41,263 यूनिट्स की बिक्री की थी। जेएटीओ डायनेमिक्स इंडिया के अध्यक्ष रवि जी भाटिया ने कहा कि रेनो, स्कोडा और फॉक्सवैगन जैसी कंपनियों को भारत में कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
उन्होंने कहा कि भारत में इन ब्रांडों के संघर्ष के पीछे कई अहम कारण हैं। शुरुआत में, इन्होंने वेंटो, रैपिड और स्काला जैसी सेडान गाड़ियों पर अधिक फोकस किया, जिसके चलते ये तेजी से लोकप्रिय हो रहे स्पोर्ट्स यूटिलिटी व्हीकल (SUV) सेगमेंट में पीछे रह गए। भाटिया ने बताया कि इन ब्रांडों ने अपनी उत्पाद श्रृंखला को समय के साथ अपडेट करने में भी तेजी नहीं दिखाई। कई मॉडल वर्षों तक बिना किसी बड़े बदलाव के चलते रहे। इसके अलावा, इनकी डीलरशिप और सर्विस नेटवर्क भी सीमित रही, खासकर टियर-2 और टियर-3 शहरों में। नतीजतन, ये ब्रांड एक बड़े और महत्वपूर्ण ग्राहक वर्ग तक पहुंच बनाने में असफल रहे।
उन्होंने बताया कि इसके अलावा, भारत की विशिष्ट कर संरचना ने भी इन ब्रांडों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। भारत में चार मीटर से छोटे वाहनों पर कम कर दर लागू होती है, जिससे उन कंपनियों को लाभ होता है जो छोटे और किफायती वाहन बनाती हैं। इस वजह से जापान और दक्षिण कोरिया के मूल उपकरण विनिर्माता (OEM) जो कॉम्पैक्ट कारों के लिए प्रसिद्ध हैं, को प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त मिली है। दूसरी ओर, यूरोपीय ब्रांड आमतौर पर बड़े मॉडल बनाते हैं और इस आकार सीमा के भीतर उपयुक्त और प्रतिस्पर्धी विकल्प पेश करने में कठिनाई का सामना करते हैं।