ईरान-इजरायल, फोटो (सो. सोशल मीडिया)
नई दिल्ली: एक समय था जब इजरायल और ईरान एक-दूसरे के करीबी साथी हुआ करते थे, लेकिन आज ये दोनों देश एक-दूसरे के सबसे बड़े विरोधी बन चुके हैं। आज ये दोनों ही एक-दूसरे पर जानलेवा मिसाइल हमले कर रहे हैं, जबकि कभी ये कूटनीति और खुफिया मामलों में साथ मिलकर काम करते थे। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इन दोनों देशों के बीच दुश्मनी की शुरुआत कैसे हुई? चलिए, विस्तार से समझते हैं कि कैसे ये पुराने सहयोगी आज एक-दूसरे के सबसे बड़े दुश्मन बन गए।
ईरान और इजरायल के बीच दोस्ती के संबंध शाही काल से चले आ रहे थे। 1948 में जब इजरायल ने खुद को एक यहूदी राष्ट्र घोषित किया, तो ईरान उन कुछ मुस्लिम देशों में शामिल था, जिसने इसे चुपचाप स्वीकार कर लिया था। उस समय ईरान के शासक शाह मोहम्मद रजा पहलवी और इजरायल सरकार के बीच राजनीतिक और सैन्य संबंध काफी मजबूत थे।
दोनों देश अमेरिका के करीबी सहयोगी माने जाते थे और उनके बीच घनिष्ठ साझेदारी थी। ईरान इजरायल को तेल निर्यात करता था, जबकि बदले में इजरायल ईरान को खुफिया जानकारी, प्रशिक्षण और तकनीकी सहायता प्रदान करता था। हालांकि, यह दोस्ती ईरान में 1979 की इस्लामिक क्रांति तक ही सीमित रही। जब शाह का शासन समाप्त हुआ और नई सरकार सत्ता में आई, तो दोनों देशों के रिश्ते बिगड़ गए और वे एक-दूसरे के कट्टर विरोधी बन गए।
1958 में इजरायल के तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड बेन-गुरियन और तुर्की के प्रधानमंत्री अदनान मेंडेरेस ने एक गुप्त मुलाकात में साझेदारी की रूपरेखा तय की थी। इसके बाद ईरान, तुर्की और इजरायल ने मिलकर “ट्राइडेंट” नामक एक गुप्त समझौता किया। इस समझौते के तहत तीनों देशों ने खुफिया जानकारियों का आदान-प्रदान, आर्थिक मदद और सैन्य हथियारों की खरीद-बिक्री पर सहमति जताई थी।
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इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद और ईरान की जासूसी एजेंसी SAVAK ने काफी समय तक साथ मिलकर काम किया। इजरायल ने ईरान को सैन्य सलाहकार और तकनीकी मदद भी दी। ईरान के सैन्य और औद्योगिक विकास में इजरायल ने बड़ा योगदान दिया। 1967 के छह दिन के युद्ध के बाद, जब कई अरब देशों ने इजरायल का बहिष्कार किया, तब ईरान ने इजरायल को कच्चा तेल की आपूर्ति जारी रखी। बदले में, इजरायल ने ईरान को आधुनिक कृषि तकनीक और तकनीकी सहायता प्रदान की।
ईरान-इजरायल
ईरान में 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद आयतुल्ला खुमैनी ने शाह के शासन का अंत कर दिया। उन्होंने एक कठोर इस्लामी व्यवस्था स्थापित की, जिसने इजरायल को “इस्लाम का शत्रु” और “शैतान” करार दिया। इस नीति के तहत, ईरान ने इजरायली पासपोर्ट को मान्यता देना बंद कर दिया, द्विपक्षीय संबंध तोड़ लिए और तेहरान स्थित इजरायली दूतावास को बंद करके उसका परिसर फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (PLO) को सौंप दिया। इस प्रकार, एक समय के सहयोगी देशों के बीच मित्रता की जगह गहरी शत्रुता ने ले ली। इसके बाद से इजरायल, ईरान को मध्य पूर्व का सबसे बड़ा सुरक्षा खतरा मानने लगा।
ईरान के नए इस्लामी शासन ने इजरायल को न केवल एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी, बल्कि एक गैर-कानूनी राष्ट्र के रूप में भी देखा। ईरान की इस्लामी क्रांति के बाद, वहां की सरकार ने फिलिस्तीनी मुद्दे को अपनी विदेश नीति का प्रमुख हिस्सा बना लिया और इजराइल को एक अवैध राष्ट्र मानने लगी। अयातुल्ला खोमैनी ने इजरायल के विरोध में कड़े भाषण दिए। 1980 और 1990 के दशकों में ईरान ने हिजबुल्लाह (लेबनान) और हमास (फिलिस्तीनी इलाकों) जैसे समूहों को सहायता देना शुरू किया, जिन्हें इजरायल आतंकी संगठन मानता है।
तब से दोनों देशों के बीच दुश्मनी इतनी बढ़ गई है कि वे एक-दूसरे को समाप्त करने की मानसिकता तक पहुंच गए हैं। आज स्थिति यह है कि जिन दोनों देशों ने कभी साथ मिलकर मिसाइल कार्यक्रम चलाए थे, वे अब एक-दूसरे को नष्ट करने के लिए मिसाइल हमलों को अंजाम दे रहे हैं।