मालेगांव विस्फोट मामला (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: आखिर हमारी न्यायप्रणाली इतनी धीमी चाल से क्यों चलती है जिसमें वर्षों मामला लटकता रहता है और जब फैसला आता है तो काफी देर हो चुकी होती है। क्या हमारी जांच एजेंसियां निकम्मी हैं जो किसी संगीन मामले के पूरे सबूत नहीं जुटा पातीं या अभियोजन ढंग से केस कोर्ट में रख नहीं पाता? मालेगांव ब्लास्ट मामले में भी यही हुआ जिसमें 17 वर्ष बाद सभी आरोपी बरी कर दिए गए। यदि ये निर्दोष थे तो इतने वर्षों तक उन्होंने इतनी प्रताड़ना क्यों झेली? उन पर जो शारीरिक व मानसिक दबाव आया उसके लिए जिम्मेदार कौन था? फिर सबसे बड़ा सवाल उठता है मालेगांव ब्लास्ट में जिन 6 लोगों की मौत हुई व 100 से अधिक घायल हुए उसके लिए दोषी कौन था? ये प्रश्न अनुत्तरित रह गए।
नाशिक जिले के मालेगांव में 29 सितंबर 2008 की रात मुस्लिम आबादी वाले भिकु चौक इलाके में जब वहां खड़ी बाइक में यह विस्फोट हुआ तब रमजान का महीना होने से सड़क पर काफी भीड़ थी। धमाके में दुकानदार व राहगीर जैसे स्थानीय लोग मारे गए या घायल हुए। इस विस्फोट के बाद ‘हिंदू आतंकवाद’ जैसा शब्द गढ़ा गया जिसका इस्तेमाल 2008 में तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने किया। फिर मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द का उपयोग किया जिस पर तीखी आपत्ति जताते हुए भाजपा ने कहा कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। इसे हिंदू आतंकवाद कहना हिंदू धर्म व संस्कृति का अपमान करना है। मालेगांव विस्फोट की गंभीरता को देखते हुए मामले की जांच आतंकवाद विरोधी दस्ते (एटीएस) को सौंपी गई थी जिसके प्रमुख हेमंत करकरे थे।
एटीएस ने जांच के दौरान साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर को इस आरोप में गिरफ्तार किया गया कि जिस मोटर साइकिल में विस्फोटक रखा गया था, उसका रजिस्ट्रेशन उनके नाम पर था। प्रज्ञा का कहना था कि उनकी बाइक चोरी चली गई थी। भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित को भी गिरफ्तार किया गया था तथा प्रज्ञा व पुरोहित को एटीएस ने मुख्य साजिशकर्ता बताया था। चार्जशीट में ‘अभिनव भारत’ संगठन का नाम लिया गया। इस मामले में यूएपीए, आईपीसी और मकोका के तहत केस दर्ज किया गया। यद्यपि विशेष अदालत ने 31 जुलाई 2009 को सबूतों की कमी का हवाला देते हुए मकोका के आरोप हटा दिए थे लेकिन 2010 में बाम्बे हाईकोर्ट ने फिर से मकोका के आरोपों को बहाल कर दिया। 2011 में यह मामला राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंपा गया।
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एनआईए ने भी मकोका के आरोपों को हटाते हुए कहा कि एटीएस ने कुछ आरोपों को गढ़ा है और दबाव डालकर कबूलनामा करवाया है। 2017 में साध्वी प्रज्ञा और ले। कर्नल पुरोहित को जमानत दे दी गई। प्रज्ञा तो भोपाल से बीजेपी सांसद भी चुन ली गई थीं। आखिर मुंबई की विशेष अदालत ने सभी 7 आरोपियों को दोषमुक्त करार दिया। जनमानस में सवाल कौंध रहा है कि क्या जांच एजेंसियां सबूत जुटाने में ढीली हैं या न्यायतंत्र पर किसी प्रकार का राजनीतिक दबाव काम करता है? ऐसे मामलों का नतीजा यही निकलता है कि खोदा पहाड़ निकली चुहिया!
लेख- चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा