(डिजाइन फोटो)
पड़ोसी ने हमसे कहा, “निशानेबाज, हमने एक कहानी सुनी थी जिसमें एक लंगड़े और एक अंधे के बीच दोस्ती थी। लंगड़ा अंधे के कंधे पर बैठकर उसे रास्ता बताता था कि आगे चलो, यहां से इस तरफ मुड़ो, वहां रुक जाओ वगैरह। लंगड़ा चल नहीं सकता था और अंधा देख नहीं पाता था लेकिन दोनों एक दूसरे की कमी पूरी करते थे।”
हमने कहा, “आगे के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग मत कीजिए। ऐसे लोगों का जिक्र करते समय उन्हें दिव्यांग कहिए। जहां तक कंधे पर सवार होने की बात है, खबर है कि सूरत के डिप्टी मेयर अपने शहर के बाढ़ग्रस्त इलाकों का जायजा लेने निकले लेकिन इसी दौरान रास्ते में कीचड़ आ जाने से वह तुरंत सब फायर ऑफिसर के कंधे पर चढ़ गए। इस तरह उन्होंने जनता की परेशानियों का जायजा लिया।”
पड़ोसी ने कहा, “निशानेबाज, किसी का बोझ उठाने के लिए कंधे मजबूत होने चाहिए। आपने विक्रम-बेताल की कहानी पढ़ी होगी। उसमें राजा विक्रमादित्य के कंधे पर बेताल चढ़ जाता है और उसे कोई कहानी सुनाता है। कहानी सुनाने के बाद वह राजा से प्रश्न पूछता है। राजा सवाल का सही जवाब देता है जिसके बाद बेताल फिर जाकर झाड़ पर लटक जाता है। इस तरह बेताल पचीसी की कथा रची गई है। ऐसा मानकर चलिए कि सूरत का डिप्टी मेयर भी इसी स्टाइल में सब फायर ऑफिसर के कंधे पर सवार हो गया।”
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हमने कहा, “कंधे को मजबूत करना है तो रोज मुगदर घुमाना चाहिए। अखाड़े में पहलवान यही करते हैं। पालकी उठानेवाले कहारों के कंधे भी काफी मजबूत होते हैं। आपने पुराना गीत सुना होगा- उठो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की ऋतु आई। चार धाम यात्रा में भी पीठ पर बंधी कुर्सी पर बिठाकर बुजुर्ग यात्रियों को ले जाया जाता है। फिल्म ‘केदारनाथ’ में आपने ऐसे पिट्टूवालों को देखा होगा। इसमें कंधों पर सारा बोझ आता है।”
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पड़ोसी ने कहा, “निशानेबाज जनता भी तो अपने कंधों पर टैक्स का भारी बोझ ढोती है। दुनिया में कुछ देश ऐसे भी हैं जहां के लोगों को तानाशाही का बोझ उठाना पड़ता है। एक जमींदार ने कुछ गरीब लोगों से बेगार लेते हुए उनके कंधे पर सामान का भारी बोझ लाद दिया। रास्ते में चोरों ने वह माल लूट लिया। इससे बेगार में काम करनेवालों को राहत मिली। उन्हें छुट्टी मिल गई।” लेख चंद्रमोहन द्विवेदी द्वारा