जनसंख्या नियंत्रण (डिजाइन फोटो)
नवभारत डेस्क: कुछ साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपील की थी, ‘देश की बड़ी आबादी देश के विकास में बाधा बन रही है। राज्य सरकारें इस समस्या से निजात के लिए जनसंख्या नियंत्रण की राष्ट्रीय नीति का कठोरता से पालन करवाएं’। वर्तमान का सत्य यह है कि सरकार को समर्थन देने वाले आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने राज्यवासियों से अपील की है कि वे ज्यादा बच्चे पैदा कर जनसंख्या बढ़ाएं।
यह अप्रत्याशित लगता है क्योंकि दशकों जनसंख्या वृद्धि बड़ी चुनौती मानकर केंद्र और राज्य सरकारें इसके नियंत्रण पर जोर देती रही हैं परंतु आज आंध्र ही नहीं, तमिलनाड़ु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन भी चंद्रबाबू की तरह लोगों से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील कर रहे हैं।
संभव है कल ऐसी ही अपीलें केरल, कर्नाटक तथा तेलंगाना में भी सुनी जाएं और सिक्किम, गोवा, अंडमान, लद्दाख जैसे कई दूसरे प्रदेश भी इनके साथ सुर मिलाएं और जनसंख्या नीति के प्रति अपनी दिशा बदल लें। वे ऐसे कानून प्रस्तावित करें जिसके अनुसार 2 या उससे ज्यादा बच्चे वाले लोगों को ही सरकारी लाभ मिल सकें। सच तो यह है कि दक्षिण के तमाम राज्य जो ऐसी प्रतिक्रिया दे रहे हैं वे आधे दशक पहले छोटे परिवार को बढ़ावा देने की बात कर रहे थे, लेकिन सहसा उनके सुर बदल गए हैं।
उनकी दलील है कि प्रजनन दर में गिरावट से राज्य और देश का नुकसान है सो इसे बढ़ाने की कोशिश अभी से करनी होगी। 145 करोड़ के देश में जनसंख्या नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कठोर प्रयास लाजिमी है। देशवासियों के समक्ष यह स्पष्ट होना चाहिये कि जनसंख्या के मामले में कुछ राज्यों की अपनी डफली अपना राग क्यों है? क्या उनका यह रवैय्या राष्ट्र स्तर पर उचित है अथवा इसमें महज संबंधित राज्यों का स्वार्थ है?
यदि घटती प्रजनन दर से वाकई दूरगामी दुष्परिणाम सामने आने वाले हैं और उनका असर राष्ट्रव्यापी हो सकता है, तो इसके लिये सरकार समय रहते जनता को सचेत करने वाले कार्यक्रम क्यों नहीं चलाती, जिससे जनमानस हर प्रकार की असुविधा और अभाव के लिए जनसंख्या को दोषी न माने।
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वह यह प्रचारित प्रसारित क्यों नहीं करती कि इससे होने वाले दूरगामी दुष्परिणामों की काट के लिये वह अभी से प्रयासरत है और उसके पास इस स्तर की कई योजनाएं हैं। उत्तर के राजनेता लोगों को जनसंख्या नियंत्रण करने के लिए कहें और दक्षिण की आबादी बढ़ाने के लिए, उसमें एनडीए के समर्थक दल के मुख्यमंत्री भी शामिल हों तो इस विरोधाभास के बीच यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि है कि जब भारत समेत वैश्विक स्तर पर जनसंख्या दर में गिरावट की बात लैंसेट रिपोर्ट और कुछ देशी शोध अध्ययन में सालभर पहले सामने आ चुकी है तब वाकई देश की तात्कालिक जनसंख्या नीति में क्या कोई बदलाव लाया गया है या उस ओर सोचा जा रहा है?
नीति आयोग अथवा संबंधित विभागों की भविष्य में इसके प्रति क्या कोई रणनीति निर्धारित की है? भविष्य में जनसंख्या नियंत्रण की नीति क्या होना चाहिये? क्या जनसंख्या नियंत्रण की एक समेकित नीति देश पर लागू होगी अथवा इसके लिये राज्यवार कार्यक्रम और उसके लक्ष्य बनाना उचित होगा।
देश में 1950 के दौरान प्रजनन दर 6.18 प्रतिशत थी अर्थात प्रत्येक महिला के औसतन 6 से अधिक बच्चे थे। घटती प्रजनन दर की जो रफ्तार है, उसके चलते यह 2050 तक 1.29 पर और सदी बीतते बीतते 1.04 तक पहुंच सकती है। फिलहाल 2021 के आंकड़ों के अनुसार राष्ट्रीय प्रजनन दर 1.91 है। ऐसी प्रजनन दर तक पहुंचने में फ्रांस, ब्रिटेन जैसे यूरोपीय देशों को 200 और अमेरिका को 145 साल लगे।
हमने यह बदलाव महज 45 साल में हासिल किया। जहां तक दक्षिण भारत के राज्यों की बात है तो 5 राज्यों और तकरीबन तीस करोड़ आबादी वाले इस हिस्से में प्रजनन दर राष्ट्रीय औसत से कम हो चुकी है और तेज गिरावट जारी है। तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में जन्म दर 2.01 से भी नीचे है।
दक्षिण भारत में कम जन्म दर के चलते भविष्य में जनगणना के बाद जनसंख्या के आधार पर तय की जाने वाली संसद में सीटें और केंद्र सरकार से मिलने वाली निधि का घाटा हो सकता है। केंद्र सरकार के द्वारा वसूले गए आयकर, कॉर्पोरेट टैक्स का जो हिस्सा जनसंख्या, आर्थिक जरूरतों और प्रति व्यक्ति आय के आधार पर मिलता है, उसमें कमी आ सकती है।
कम आबादी, देश की आर्थिकी में बड़े योगदान और प्रति व्यक्ति अधिक आय की बावजूद दक्षिण के राज्य नुकसान में रहेंगे। दुनिया का कोई भी देश बरसों बरस कोशिश करके, खरबों खर्च करके भी जन्मदर वापस हासिल नहीं कर पाया। आबादी में बच्चों, जवानों और बुजुर्गों का संतुलन बना रहे, इसके लिए प्रजनन दर का 2.1 के आसपास होना चाहिये।
पर्याप्त बच्चे न होंगे, तो बुजुर्ग बढ़ेंगे, जो उत्पादक न होकर भोक्ता होंगे। अभी 60 साल से ज्यादा की उम्र के 40 प्रतिशत बुजुर्ग बेरोजगार और बुरी दशा में हैं, भविष्य में इनकी और दुर्गति आशंकित है। बुजुर्ग कम जोखिम उठाने वाले, कम रचनात्मक होंगे, नए पेटेंट कम हो जाएंगे। यह सब देश की आर्थिकी के लिए घातक होगा।
लेख- संजय श्रीवास्तव द्वारा