बाढ़ ने मचाई तबाही (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: इस साल अब तक बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने और बिजली आदि गिरने से देश में 432 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी हैं, जिसमें सबसे ज्यादा मौतें उत्तराखंड, हिमाचल, असम, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा, मध्य प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र आदि में हुई हैं। अगर देश के अलग-अलग राज्यों के अनुमानित नुकसान को समग्रता में देखा जाए, तो अब तक लगभग 5 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है। आशंका है कि इस साल पूरे मानसून के दौरान 20 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा का नुकसान हो सकता है। क्योंकि बारिश का पैटर्न ज्यादातर राज्यों में बहुत स्ट्रॉन्ग है और जिन राज्यों में कमजोर है, वहां बारिश न होने से कई सौ करोड़ रुपये के नुकसान की आशंका है।
जब हर साल भारत में बाढ़ एक आपदा बनकर आती है, तो आजादी से अब तक करीब 78 वर्षों में विभिन्न सरकारों ने इससे निपटने का कोई स्थाई इंतजाम क्यों नहीं किया? क्या इसकी वजह यह है कि इस मौसमी आपदा से शासन-प्रशासन में बैठे बहुत से लोगों को अच्छी-खासी कमाई हो जाती है? ये लोग मालामाल हो जाते हैं? हजारों मौत और करोड़ों अरबों रुपये का नुकसान होने के बावजूद देश में शासक-प्रशासक इस आपदा को गंभीरता से नहीं लेते? इसके पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी तो नहीं है? बाढ़ नियंत्रण से जुड़ी योजनाएं अक्सर लंबी अवधि की होती हैं और इनका चुनावों में किसी तरह का फायदा नहीं मिलता। क्योंकि बारिश के तुरंत बाद या बारिश के आसपास कभी चुनाव नहीं होते। आम चुनाव आमतौर पर मार्च, अप्रैल में होते हैं या सर्दियों में और भारत में किसी भी आपदा को भुलाने के लिए 60 से 90 दिन बहुत होते हैं।
अगर हम बाढ़ को लेकर इतना ही उदासीन रहे, तो 2047 तक हम भारत को विकसित बनाने का जो ख्वाब देखते हैं, वह ख्वाब ही रह सकता है। यह समस्या भले अपने फायदों के कारण शासन-प्रशासन में महत्वपूर्ण जगहों पर बैठे लोग न समझते हों, लेकिन देश के आम लोग जो इस बाढ़ से हर साल पीड़ित होते हैं। भारत आज भी मूलतः कृषि प्रधान देश है। भले हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया में चौथे पायदान पर पहुंच गई हो और इस अर्थव्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी सिर्फ 18.2 फीसदी हो, देश की अभी भी 42 फीसदी आबादी सीधे तौर पर और करीब 10 फीसदी आबादी अप्रत्यक्ष तौर पर कृषि पर ही निर्भर है।
खेती अभी भी आधे से ज्यादा भारतीयों की जीविका है। आज भी आधे से ज्यादा खेती मानसून पर ही टिकी है और पेयजल का भी 60 फीसदी से ज्यादा आधार बारिश का पानी ही है। देश में जो जलविद्युत बनती है, उसके लिए भी बारिश का होना बहुत जरूरी है। इस बार जून से सितंबर के बीच 106 प्रतिशत ज्यादा बारिश हो सकती है।
इस बार अधिकांश क्षेत्रों में सामान्य से अधिक बारिश की संभावना है। जबकि कुछ क्षेत्रों में बारिश कुछ कम भी हो सकती है, जिनमें बिहार, झारखंड़, पश्चिम बंगाल, ओड़सिा के कुछ हिस्से, पंजाब, हरियाणा और तमिलनाडु जैसे राज्य शामिल हैं। सवाल है क्या यह औसत से ज्यादा बारिश का अनुमान खेती के लिए खुशहाली की सूचना है? इसका जवाब ‘हां’ में भी है और ‘न’ में भी। क्योंकि अनुभव बताता है कि ज्यादा बारिश अपने यहां दुधारी तलवार की तरह है। यह खेती के लिए खुशखबरी भी हो सकती है और कई बार यह खेती के लिए परेशानी का सबब भी बनती है। क्योंकि इस साल अनुमान से करीब 10 दिन पहले मानसून सक्रिय हो गया है, इसलिए जुलाई के महीने में होने वाली खरीफ फसल बुआई का रकबा पिछले साल के मुकाबले 11.3 फीसदी बढ़ गया है।
इस साल जून की आखिरी तारीख तक ही 26.2 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में खरीफ की बुआई हो चुकी थी। बुआई के साथ-साथ जलाशयों, नदियों और भूमिगत जल के स्तर में तेजी से पुनर्भरण हुआ है, जिससे सीधा-सा अनुमान है कि रबी की फसल में सिंचाई की कम जरूरत पड़ेगी। यही नहीं इस साल जून और मई के महीनों में औसत से कम गर्मी पड़ी है। सिर्फ गुजरात में ही नहीं महाराष्ट्र के पुणे और मराठवाड़ा जिले में भी इस साल ज्यादा बारिश के कारण ज्वार, बाजरा, मूंगफली जैसी फसलों का 60 से 70 फीसदी तक नुकसान हो चुका है। अगर पूरी जुलाई यही स्थिति रही तो महाराष्ट्र के ज्यादातर हिस्सों में विशेषकर पुणे और मराठवाड़ा संभाग में 80 से 90 फीसदी तक खेती का नुकसान हो सकता है।
लेख- नरेंद्र शर्मा के द्वारा