मृत्युदंड निषेध दिवस पर विशेष (सौ.डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: चंडीगढ़ में पंजाब व हरियाणा नागरिक सचिवालय के बाहर 31 अगस्त 1995 को भयंकर बम विस्फोट हुआ था जिसमें पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह व 16 अन्य व्यक्तियों की दर्दनाक मौत हो गई थी। इस अपराध के लिए बलवंत सिंह राजोआन और जगतार सिंह हवारा को ट्रायल कोर्ट ने 2007 में फांसी की सजा सुनायी। राजोआन ने इस सजा और 2010 में पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा इसकी पुष्टि के खिलाफ कोई अपील दायर नहीं की।
लेकिन उसने सुप्रीम कोर्ट में आग्रह किया है कि उसकी सजा-ए-मौत इस आधार पर पलट दी जाये कि वह पिछले 25 साल से जेल में है और पिछले 13 साल से उसके लिए फांसी की रस्सी लटकी हुई है। 2012 में राजोआन के लिए अन्य लोगों की तरफ से राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका पेश की गई थी, जिस पर अभी तक कोई फैसला नहीं लिया गया है, जबकि 27 सितम्बर 2019 को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पंजाब के मुख्य सचिव को सूचित किया था कि बाबा गुरु नानक देव के 550 वें जन्मदिवस के अवसर पर राजोआन के मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदलने का फैसला लिया गया है, लेकिन यह ‘सूचना’ भी चुनावी जुमला निकली।
फांसी देने में जब असामान्य देरी होती है, तो दोषी को मानवीय आधार पर मानसिक क्रूरता से सुरक्षित रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट अक्सर मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल देता है, जैसा कि 1993 के दिल्ली बम विस्फोट के दोषी देविंदर पाल सिंह भुल्लर के सिलसिले में किया गया था। भुल्लर की दया याचिका को राष्ट्रपति ने ठुकरा दिया था, लेकिन उसे फांसी देने में असामान्य देरी की जा रही थी, इसलिए 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने उसके मृत्युदंड को उम्रकैद में बदल दिया। अब राजोआन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 25 सितम्बर को केंद्र सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि जब आपने उसे अभी तक फांसी पर नहीं लटकाया है, तो उसके मृत्युदंड को पलटने का विरोध क्यों किया जा रहा है?
ऐसा प्रतीत हो रहा है कि राजोआन को लेकर केंद्र सरकार असमंजस की स्थिति में है। वह उसे फांसी पर लटकाना भी नहीं चाहती और उसे छोड़ना भी नहीं चाहती। राजोआन के वकील मुकुल रोहतगी का कहना है, वह लगभग तीन दशक से सलाखों के पीछे है और दो दशक से मृत्युदंड के साये में है। अगर सुप्रीम कोर्ट उसकी सजा को उम्रकैद में बदल देगा तो वह जेल से रिहा हो जायेगा।
आजाद भारत में ब्रिटिश राज की जिन सजाओं को बरकरार रखा गया है उनमें मृत्युदंड भी है। लेकिन संशोधन के बाद यह प्रावधान गंभीर अपराधों में भी अति दुर्लभ में लागू किया जाता है। विधि आयोग की 35वीं रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 1947 व 1967 के बीच 1000 से अधिक व्यक्तियों को फांसी दी गई। भारत में फांसी की अंतिम रिकार्डेड घटना 20 मार्च 2020 की है, जब दिल्ली के तिहाड़ जेल में 2012 के निर्भया सामूहिक बलात्कार व हत्या के दोषियों मुकेश सिंह, अक्षय ठाकुर, विनय शर्मा व पवन गुप्ता को फांसी दी गई थी। फिलहाल भारतीय जेलों में ऐसे 539 व्यक्ति हैं, जिन्हें विभिन्न अदालतों ने फांसी की सजा सुनाई हुई है। वैसे फांसी दिये जाने की संख्या शायद इसलिए भी कम है; क्योंकि अधिकतर राज्यों का झुकाव ‘त्वरित न्याय’ की तरफ है यानी संदिग्ध का एनकाउंटर करके काम तमाम कर दिया जाये।
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समाज को अपराध-मुक्त करने के लिए आउट-ऑफ़-द-बॉक्स सोच की आवश्यकता है। इस पृष्ठभूमि में मृत्युदंड निषेध आंदोलन के महत्व को समझना आवश्यक है। हर साल 10 अक्टूबर को सजा-ए-मौत के विरुद्ध विश्व दिवस मनाया जाता है। यह मृत्युदंड पर विराम लगाने के लिए ग्लोबल आंदोलन है, जो सिविल सोसाइटी, राजनीतिक नेताओं, वकीलों, जनता आदि को एकजुट व जागृत करता है ताकि दुनियाभर से मृत्युदंड को समाप्त किया जा सके। अनेक देश मृत्युदंड को पूर्णत: खत्म कर चुके हैं। जिम्बाब्वे ने जनवरी 2025 में अपनी संसद में कानून बना कर मृत्युदंड को प्रतिबंधित कर दिया है। 113 देशों में किसी भी अपराध के लिए मृत्युदंड नहीं दिया जाता। दुनियाभर में लगभग 28,085 लोगों पर फांसी की तलवार लटकी हुई है, जिनमें से 5 प्रतिशत महिलाएं हैं। यह डाटा एमनेस्टी इंटरनेशनल से लिया गया है। इस बार का यह विश्व दिवस इस गलतफहमी को चुनौती देने के लिए समर्पित है कि मृत्युदंड देने से लोग व समुदाय सुरक्षित रह सकते हैं।
लेख-डॉ. अनिता राठौर