(डिजाइन फोटो)
पड़ोसी ने हमसे कहा, “निशानेबाज, हमारे देश में कांवड़ यात्रा की पुरानी परंपरा रही है। सावन के महीने में श्रद्धालुजन गंगा जैसी पवित्र नदियों का जल कांवड़ में लेकर अपने गांव जाते हैं और शिवलिंग पर चढ़ाते हैं। पावन नदियों को माता माना गया है। आपने श्लोक सुना होगा- गंगेच यमुने चैव गोदावरी सरस्वती नर्मदे सिंधु कावेरी जले स्मिन संनिधिं कुरू ! आस्थावान लोग इन नदियों का स्मरण कर सिर पर लोटे से जल डालकर स्नान कर पवित्रता अनुभव करते हैं।”
हमने कहा, “कांवड़ में तो श्रवण कुमार ने भी अपने नेत्रहीन वृद्ध माता-पिता को बिठाकर तीर्थयात्रा कराई थी। आज भी आज्ञाकारी पुत्र को श्रवणकुमार की उपमा दी जाती है। कांवड़ उठाकर चलने के लिए कंधे और शरीर मजबूत होना चाहिए। हम तो कहते हैं कि किसी मजबूत कांवड़एि को चुनकर वेटलिफ्टिंग या भारोत्तोलन के लिए ओलंपिक भेजना चाहिए। त्रेता युग से लेकर आज तक कांवड़ की परंपरा चली आ रही है।”
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पड़ोसी ने कहा, “निशानेबाज, हम कांवड़ की चर्चा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र गुना के खुटियावाड़ गांव में कांवड़ यात्रा में शामिल हुए और अन्य कांवड़यों के साथ कंधे पर कांवड़ लेकर आधा किलोमीटर दूर तक चले। यात्रा में शामिल लोग हर-हर महादेव का जयघोष कर रहे थे।”
हमने कहा, “यह अटूट श्रद्धा व गहन आस्था का मामला है। आपको याद होगा कि जब देश में कांग्रेस सरकार थी तब धर्मनिरपेक्षता के नाम पर नेता मंदिर जाने या खुद को हिंदू बताने में शरमाते थे। वे खुद को अपने ही धर्म के प्रति उदासीन दिखाते थे। ये आडम्बरी नेता अल्पसंख्यकों को इफ्तार पार्टी दिया करते थे। दशकों तक यही सिलसिला चला क्योंकि इसके पीछे वोटों की राजनीति थी। अब हिंदू स्वाभिमान जाग उठा है। ज्योतिरादित्य के पूर्वजों ने ग्वालियर राजघराने की परंपरा निभाते हुए अपनी आस्था कायम रखी। ज्योतिरादित्य ने राजनीति का भार उठाने के साथ कांवड़ का भार भी उठाकर दिखाया। यदि आपने विष्णु सहस्त्रनाम पढ़ा हो तो उसमें भगवान विष्णु के 1,000 नामों में से एक ज्योतिरादित्य भी है।”
लेख चंद्रमोहन द्विवेदी द्वारा