दिल खोलकर रेवड़ी फेंको चुनाव जीतो का चला फार्मूला (सौ.डिजाइन फोटो)
नवभारत डेस्क: चुनावी लोकतंत्र का इन दिनों सबसे बड़ा सच है, रेवड़ी फेंको, चुनाव जीतो झारखंड, महाराष्ट्र और हरियाणा तीनों जगह सत्ताधारी दलों ने राजकोष का दिल खोलकर इस्तेमाल किया और मतदाताओं को अपने पाले में करने में सफलता हासिल कर ली। इन तीनों राज्यों में छह माह पूर्व राजनीतिक परिदृश्य एंटी इन्कंबेंसी का था, लेकिन मतदान का दिन आते आते यह प्रो इन्कंबेंसी में तब्दील हो गई। अब लोकलुभावनवाद और खजाना लुटावनवाद की राजनीति ने बड़ी मजबूती से अपने पैर जमाने शुरू कर दिये हैं। तमिलनाडु में ननाडु में कभी साड़ी, कभी जेवरात। कभी-कभी मोबाइल बांटने की बातें हुई।
नीतीश कुमार ने बिहार में लड़कियों को साइकिलें बांटी थीं। इसके पहले कई राज्य सरकारों द्वारा किसानों की कर्ज माफी का भी चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल किया गया। दिल्ली में आप द्वारा एक सीमा तक मुफ्त बिजली, पानी और बाद में महिलाओं के मुफ्त बस यात्रा का जो प्रावधान परोसा गया, वह लोकलुभावनवाद उनकी राजनीति नेका स्थायी हिस्सा बन गया। नरेंद्र मोदी सरकार ने इंदिरा के के जमाने के सस्ता राशन को रेवड़ी की राजनीति के तौर पर अपना लिया। कोविड के आपदाकाल में शुरू की गई मुफ्त राशन योजना को चुनावों को ध्यान में देखते हुए मोदी सरकार द्वारा अगले 5 साल के लिए बढ़ा दिया गया।
मध्य प्रदेश में सर्वप्रथम महिलाओं को ध्यान में रखकर शुरू की गई लाडली बहन और गृहलक्ष्मी योजना, सदृश योजनाएं अब सभी राज्यों ने अपना ली है और अभी इन तीन चुनावी राज्यों यानी हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में यहां की चुनाव पूर्व की सरकारों ने महिलाओं को मिलने वाले मासिक सहायता राशि में जबरदस्त बढ़ोतरी की। इसका नतीजा ये हुआ कि इन तीनों राज्यों में महिला मतदाताओं का मतदान प्रतिशत विगत के चुनावों से काफी ज्यादा बढ़ा जिसने सत्तारूढ दल को वरीयता दी। महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण के साथ साथ राजनीतिक सशक्तीकरण की दृष्टि से यह नया रेवड़ी कल्चर भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय शुरू कर चुका है।
भारत के राजनीतिक दलों ने पहली बार आधी आबादी के मतों का महत्व बड़ी शिद्दत से पहचाना है। एक कल्याणकारी सरकार को सबसे पहले अपने नागरिकों के लिए आंतरिक व बाह्य सुरक्षा, दूसरा मानव विकास यानी शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई तथा तीसरा व्यापक 5 सामाजिक सुरक्षा का इकोसिस्टम प्राथमिकता में दर्ज होना चाहिए। इसी की परिधि में राजनीतिक दलों को अपने वादे व घोषणापत्र निर्धारित करने चाहिए। यदि जनता के सामाजिक आर्थिक कल्याण की व्यापक फलक पर बात करें तो एबल को रोजगार और डिसेबल को पेंशन तथा डिपेंडेट पापुलेशन को शिक्षा चिकित्सा और स्टाइपेंड। यही सूत्र वाक्य होना चाहिए।
किसी भी प्रतियोगी लोकतंत्र में चुनाव को लेकर एक लेवल प्लेइंग की स्थिति नहीं बन पाती। मिसाल के तौरपर रेवड़ी की राजनीति में जो दल विपक्ष में है, वह मतदाताओं को नहीं लुभा पाएगा; क्योंकि उसके पास राजखजाना नहीं हैं। जबकि सत्ताधारी दल नको सत्ता सत्ता में रहने का एडवांटेज मिल जाता है। दूसरा राजखजाने पर इसका भारी बोझ भी पड़ता है। अब सवाल है कि क्या इसी तर्ज पर भारतीय चुनावी लोकतंत्र में आइडेंटिटी- मनी-मसल-हेट स्पीचेज की पॉलीटिक्स के साथ पोपुलिज्म पॉलीटिक्स की भी रोकथाम हो, उसके लिए हमारे पॉलीटिकल रेगुलेटर यानी चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप एक व्यापक दिशानिर्देश, मापदंड व कुल मिलाकर एक लक्ष्मण रेखा निर्धारित की जानी चाहिए।
अभी राज्य विधानसभा चुनाव के परिणामों के जरिये ये बातें भलीभांति निर्धारित हो गई कि एंटी इन्कंबेंसी को रेवड़ी कल्चर से कुंद बनाया जा सकता है। इस क्रम में अब नजर दिल्ली के आगामी फरवरी में होने वाले विधानसभा चुनाव पर जाकर टिक गई है, जहां आप के प्रमुख केजरीवाल ने रेवड़ी पर चुनावी चर्चा का अपना पंडाल अभी से सजाना शुरू कर दिया है।
मनोहर मनोज द्वारा लेख