दिल्ली विधानसभा चुनाव (डिजाइन फोटो)
नवभारत डेस्क: मैं परेशान हो गया हूं। इधर जाऊं या उधर जाऊं। हां, पहले मैं यह बता दूं कि मैं कौन हूं? मैं दिल्ली का मतदाता हूं- मैं 18 वर्ष का छात्र हूं, मैं युवा गृहिणी हूं, मैं अधेड़ उम्र का व्यक्ति हूं, जिसे अपनी बेटी की शादी करनी है।।। संक्षेप में यह कि मैं हर उस नागरिक का प्रतिनिधि हूं जिसे दिल्ली के विधानसभा चुनाव में मत प्रयोग करने का अधिकार है। अब मेरी समस्या क्या है?
मैं अगर सिविल सर्विसेज की परीक्षा में बैठूंगा तो बीजेपी मुझे एकमुश्त 15 हजार रुपये देगी और मैंने जो इस परीक्षा को पास करने के पहले दो असफल प्रयास करने में फीस व यात्रा में पैसे खर्च किये थे, वह भी मुझे वापस (रीइम्बर्स) कर देगी। मैं अगर अपनी बेटी की शादी करूंगा तो आम आदमी पार्टी (आप) मुझे एक लाख रुपया देगी।
मैं महिला हूं तो आप मुझे हर माह 2100 रुपये देगी और अगर मैंने बीजेपी या कांग्रेस को वोट दिया तो उनसे मुझे 400 रुपये अधिक यानी हर माह 2500 रुपये मिलेंगे। मैं मंदिर का पुजारी या गुरूद्वारे का ग्रंथी हूं तो ‘आप’ मुझे 18,000 रुपये प्रति माह देगी, यह अलग बात है कि मस्जिद के इमाम के रूप में मुझे महीनों से मेरा वेतन नहीं मिला है।
वोकेशनल इंस्टिट्यूट में मैं अनुसूचित जाति का छात्र हूं, बीजेपी मुझे 1000 रुपये प्रति माह देगी। मैं 60 से 70 वर्ष के बीच का बुजुर्ग हूं, मुझे बीजेपी हर माह 2500 रुपये देगी और 70 बरस की आयु पार करने के बाद वह इसमें 500 रुपये की वृद्धि करते हुए 3000 रुपये प्रति माह देगी। अरे, मैं तो गर्भवती महिला हूं मुझे तो बीजेपी से 21,000 रुपये मिलेंगे। मैं बेरोजगार युवा हूं, मुझे कांग्रेस एक साल तक 8500 रुपये का स्टाइपेंड देगी।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में वायदों के रूप में पैसों की बारिश हो रही है। मुफ्त कैश की राजनीति नियंत्रण से बाहर हो चुकी है। मतदाता बेचारा परेशान है कि किसके वायदों को सच्चा माने और किसके वायदों को झूठा माने। उसे मालूम है कि उसकी मूलभूत समस्याओं का किसी राजनीतिक दल के पास कोई समाधान नहीं है, इसलिए उसे कैश के प्रलोभन दिए जा रहे हैं।
विजयलक्ष्मी पंडित ने 1977 के आम चुनाव में एकदम सही कहा था कि चुनावी वायदे चुनाव में ही रह जाते हैं। उत्तर प्रदेश के मतदाता आज तक इस प्रतीक्षा में हैं कि वह होली और दीवाली कब आयेंगी जब मुफ्त का कुकिंग गैस सिलिंडर घर आयेगा? हर साल जो दो करोड़ रोजगारों का सृजन हो रहा था, उसका क्या हुआ? पेट्रोल 35 रूपये प्रति लीटर होना था (100 रुपये से ऊपर हो गया), रुपया डॉलर के मुकाबले में मजबूत होना था (86 रुपये से ऊपर पहुंच गया), किसानों की आय दोगुनी होनी थी, वह अब भी एमएसपी के लिए आंदोलन कर रहे हैं… सब जुमले निकले। लेकिन मुद्दा यह नहीं है।
राजनीतिक पार्टियां एक ऐसे चुनावी मॉडल की तरफ जा रही हैं, जो सार्वजनिक विकास की बजाय निजी लाभ को वरीयता देता है। इसके गंभीर परिणाम होने जा रहे हैं- दोनों लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए और अर्थव्यवस्था के लिए। सबसे पहली बात तो यह है कि हम सीधे कैश ट्रांसफर टेक सफलता का दूसरा पहलू देख रहे हैं।
राजनीतिक पार्टियों और नागरिकों के बीच में यह अनैतिक व्यवस्था स्थापित हो गई है कि अगर आप वोट देंगे तो आपको कैश मिलेगा। उन्होंने उनके पक्ष में मतदान नहीं किया था। न सिर्फ चुनाव जीतने के लिए हर हथकंडा अपनाया जाता है बल्कि सत्ता में आने के बाद राज्य के खजाने में गोता लगाकर मुफ्त की रेवड़ियां बांट दी जाती हैं। बस चुनावी राजनीति ही अपने आपमें अंतिम लक्ष्य बनकर रह गया है। अपना काम बनता, भाड़ में जाये जनता।
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दिल्ली के लिए बीजेपी ने अपने दूसरे घोषणा पत्र में वायदा किया कि वह सरकारी शिक्षा संस्थाओं में जरूरतमंद छात्रों को केजी से लेकर पीजी तक मुफ्त में शिक्षा प्रदान करायेगी और घरेलू नौकरों व ऑटो-टैक्सी चालकों को क्रमशः 10 लाख रुपये व 5 लाख रुपये का बीमा एक्सीडेंट कवर के रूप में देगी। सवाल यह है कि केजी से पीजी तक की मुफ्त शिक्षा का वायदा सिर्फ दिल्ली की जनता से ही क्यों किया जा रहा है, इसकी जरूरत तो पूरे देश को है?
कुकिंग गैस सिलिंडर भी सभी को 500 रुपये में चाहिए, न सिर्फ उन राज्यों को, जिनमें चुनाव हो रहे हों (यह अलग बात है कि यह वायदा वहां भी पूरा नहीं किया जाता)। अब समय आ गया है कि मतदाता मुफ्त की रेवड़ियों के झांसे में न आयें बल्कि यह देखें कि उसकी मूलभूत समस्याओं- शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, महंगाई, सुरक्षा आदि के समाधान का ब्लूप्रिंट किस पार्टी के पास है?
लेख- विजय कपूर के द्वारा