सहयोगी दलों को बैसाखी कहना कितना उचित! (सौ. सोशल मीडिया)
नवभारत डिजिटल डेस्क: हाल ही में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि बीजेपी को महाराष्ट्र में बैसाखियों की जरूरत नहीं है।स्थानीय निकाय चुनाव के पहले दिए गए उनके इस बयान से महायुति सरकार में शामिल एकनाथ शिंदे और अजीत पवार की शंका व बेचैनी बढ़ गई होगी।देश की राज्यस्तरीय छोटी पार्टियों के प्रति बीजेपी कैसा रवैया रखती है, यह समय-समय पर उसके नेताओं के बयान से पता चलता है।अपनी पार्टी का बड़प्पन दिखाते हुए सहयोगी पार्टियों को उनकी हैसियत बताने की मानसिकता इसके पीछे है।एकनाथ शिंदे और अजीत पवार दोनों ही महाराष्ट्र की राजनीति के अनुभवी और कद्दावर नेता हैं तथा सत्ता से चिपककर रहने की कला भलीभांति जानते हैं।
अजीत पवार 3 दशक से भी अधिक समय तक सत्ता में रहे हैं तो दूसरी ओर एकनाथ शिंदे भी अवसर के मुताबिक लचीलापन अपनाते हैं।वे मुख्यमंत्री रहने के बाद उपमुख्यमंत्री पद स्वीकार करने को तैयार हो गए।अमित शाह के वक्तव्य से लगता है कि बीजेपी अब अपने साथ शिवसेना (शिंदे) और राकांपा (अजीत) को साथ रखना नहीं चाहती।वह मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के समान पूरी सत्ता अपने हाथों में केंद्रित रखने का विचार कर रही है जिसमें किसी भी तरह की साझेदारी न हो।केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के भय से सहयोगी पार्टियों के नेता दबे रहते हैं।विपक्षी पार्टियों को तोड़ने और कमजोर करने की नीति में बीजेपी को सफलता मिली है।महाराष्ट्र की राजनीति में महाविकास आघाड़ी भी एकजुट नजर नहीं आती।कांग्रेस का दलित-मुस्लिम वोट बैंक उद्धव ठाकरे की ओर खिसक गया है।
मुंबई महापालिका चुनाव के लिए उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे अपना अलग तालमेल जमा रहे हैं।राकांपा (शरद पवार) में विशेष हलचल नजर नहीं आती।मुद्दा यह है कि क्या अमित शाह का मित्र दलों को बैसाखी कहना उचित है? क्या शाह ने मान लिया है कि आरएसएस का संरक्षण और चुनाव आयोग का साथ बना रहे तो बीजेपी को किसी सहयोगी पार्टी की जरूरत ही नहीं रह जाएगी? अगर यह पार्टियां साथ नहीं देतीं तो विधानसभा चुनाव में बीजेपी को इतनी सफलता नहीं मिल पाती।शाह के इस तरह के बयान के बाद एनडीए की सहयोगी पार्टियों और उनके नेताओं को भी सोचना पड़ेगा कि क्या बीजेपी उन्हें अपने मतलब के लिए इस्तेमाल कर रही है?
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यदि बीजेपी इतनी ही सक्षम है तो केंद्र में अपने बलबूते सरकार बना कर दिखाती।272 सदस्यों के बहुमत का आंकड़ा जुटाने के लिए उसे नीतीश कुमार की पार्टी जदयू और चंद्राबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी का सहयोग लेना पड़ा।शाह को याद होगा कि एक समय अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार सिर्फ 1 वोट कम होने की वजह से गिरी थी।इसलिए सहयोगी दलों का एक-एक वोट भी कीमती होता है।उन्हें बैसाखी कहकर नीचा दिखाने की कोशिश उचित नहीं कही जा सकती.
लेख-चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा