सुनील गफाट को नेताओं से पंगा लेना पड़ा भारी। (सौजन्यः सोशल मीडिया)
वर्धा: लंबी प्रतीक्षा के बाद भाजपा के जिलाध्यक्ष की घोषणा हुई है। भाजपा के वरिष्ठ नेताओं संजय गाते की जिलाध्यक्ष पद पर नियुक्ति कर एक तीर से कई निशाने साधे हैं। गत डेढ़ वर्ष से गफाट की कार्यप्रणाली को लेकर भाजपा के वरिष्ठ नेताओं में नाराजगी चल रही थी। इसी का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा है। भाजपा ने मंडल अध्यक्ष को घोषणा करने के बाद जिलाध्यक्ष के लिए चयन प्रक्रिया प्रारंभ की थी। जिलाध्यक्ष पद के लिए अनेक दावेदार सामने आए थे, जिसमें पालकमंत्री गुट से प्रशांत बुर्ले, अशोक कलोडे इच्छुक थे।
पूर्व सांसद रामदास तडस गुट से पूर्व जिप सभापति मिलिंद भेंडे का नाम सामने आया। परंतु भेंडे के नाम पर अनेकों ने आपत्ति जताई थी, जिसके पीछे कारण उन पर कुछ वर्ष पूर्व लगे आरोप महत्वपूर्ण थे। महिला के रूप में पूर्व जिप अध्यक्ष सारिका गाखरे का नाम रखा गया था। मात्र उनके नाम को उनके ही गॉडफादर ने रेड सिग्नल दिखा दिया। वर्धा के पूर्व नगराध्यक्ष अतुल तराले का नाम भी चर्चा में रहा। परंतु पालकमंत्री भोयर के विरुद्ध निरंतर तराले ने भूमिका लेने के कारण उनके नाम को विरोध होने की जानकारी है। हिंगनघाट के विधायक समीर कुणावार व आर्वी के सुमित वानखेडे ने चयन प्रक्रिया से दूरी बनाई।
वहीं देवली के विधायक राजेश बकाणे तटस्थ रहने का निर्णय लिया। इसी दौरान पार्टी में तेली कुणबी समाज से हटकर जिलाध्यक्ष पद देने की मांग भी उठी। इसी का फायदा भाजपा के स्थानीय नेताओं ने उठाया। बीते अनेक वर्ष से पार्टी से जुड़े संजय गाते का नाम अचानक चर्चा में आया, जिसके लिए पूर्व सांसद रामदास तडस ने खास रोल अदा किया। पालकमंत्री भोयर व पूर्व सांसद तडस फिर एक बार एक मंच आए। उन्होंने तेली कुणबी समाज से हटकर बरसों से पार्टी से जुड़े गाते का नाम मुहर लगाई, जिसे बाद में विधायक दादाराव केचे का भी अनुमोदन मिलने के कारण गाते का रास्ता साफ हुआ।
पूर्व जिलाध्यक्ष सुनील गफाट की कार्यप्रणाली को लेकर विधायक दादाराव केचे, सांसद रामदास तडस व पालकमंत्री भोयर में नाराजगी थी। गफाट पर उनके विरोधी गुट को पनाह देने का आरोप था। उनके कार्यकाल में नाराजगी बढ़ने के कारण इसका खामियाजा आने वाले स्थानीय निकाय संस्था के चुनाव के दौरान भुगतना पड़ सकता है, ऐसा स्थानीय वरिष्ठ नेताओं एवं विधायकों का कहना था। गफाट गुटबाजी की राजनीति को हवा देने का काम करते हैं, ऐसा आरोप उन पर लगा था। परिणामस्वरूप उन्हें पुन: अवसर नहीं दिया जाए, ऐसी राय कुछ नेताओं की थी।
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इसी कारण उनका नाम पिछड़कर संजय गाते का नाम सामने आया। गाते अनेक वर्ष से पार्टी व संघ परिवार से जुड़े हैं। उनके जिले में राजनीतिक शत्रु नहीं के बराबर होने के साथ पार्टी के प्रति उनकी वफादारी निरंतर रही है, जिससे उन्हें अवसर देकर ओबीसी समाज के अन्य वर्गों को न्याय देने का प्रयास किया जाए। गाते की नियुक्ति की गई तो अन्य गुट अंगुली निर्देश नहीं कर सकते, क्योंकि गाते पार्टी के निष्ठावान हैं, ऐसी भावना वरिष्ठ नेताओं ने व्यक्त की। तत्पश्चात गाते के नाम पर अंतिम निर्णय लिया गया।
आने वाले दिनों में स्थानीय निकाय संस्था के चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में उन्हें पार्टी के सभी गुटों में समन्वय बनाकर काम करना होगा। तथा बीते चुनाव की तुलना में पार्टी भारी जनाधार देने की चुनौती उनके सामने होगी। गत कुछ वर्षों में पार्टी में गुटबाजी का सिलसिला चला आ रहा है। यह गुटबाजी खत्म करने के लिए कदम उठाने होंगे, तभी उनकी राह आसान होगी।