40 दिन में ‘स्वर्ण पदक’ से ‘सस्पेंड’ तक (सौजन्यः सोशल मीडिया)
अमरावती: अमरावती से भ्रष्टाचार का एक अजीबोगरीब मामला सामने आया है। वन और वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए 21 मार्च 2025 को राज्य के वन मंत्री गणेश नाइक के हाथों स्वर्ण पदक से सम्मानित की गई महिला क्षेत्रीय वन अधिकारी (आरएफओ) को महज 40 दिन के भीतर निलंबित कर दिया गया है।
धुले जिले के नवापुर में पदस्थापित आरएफओ स्नेहल अवसरमल पर सरकारी कार्यों में लापरवाही, जिम्मेदारी से बचने और वित्तीय अनियमितताओं के गंभीर आरोप लगाए गए हैं। इस संबंध में 30 मई 2025 को धुले के क्षेत्रीय वन संरक्षक निनू सोमराज द्वारा उनके निलंबन का आदेश जारी किया गया।
राज्य के राजस्व और वन विभाग की पदक चयन समिति की बैठक 9 नवंबर 2024 को प्रधान सचिव (वन) की अध्यक्षता में आयोजित हुई थी। इस बैठक में वर्ष 2020-21 से 2022-23 तक के नामांकनों की समीक्षा की गई थी। चयन समिति ने 79 अधिकारियों और कर्मचारियों के नाम पदक के लिए सुझाए थे।
इन्हीं में आरएफओ स्नेहल अवसरमल को वर्ष 2022-23 के लिए उत्कृष्ट सेवा हेतु स्वर्ण पदक से सम्मानित करने की अनुशंसा की गई थी। लेकिन यह बात हैरान करने वाली है कि जिन अधिकारियों पर पहले से शिकायतें लंबित थीं और जिनके विरुद्ध जांच शुरू हो चुकी थी, उन्हें पदक कैसे प्रदान कर दिया गया?
स्नेहल अवसरमल के खिलाफ नवापुर क्षेत्र में कामकाज के दौरान की गई वित्तीय अनियमितताओं को लेकर 24 फरवरी 2025 को 3 सदस्यीय जांच समिति गठित की गई थी। जांच में सामने आया कि उन्होंने नवापुर प्रादेशिक कार्यालय में 26 लाख 61 हजार 230 रुपये तथा महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) में 18 लाख 46 हजार 092 रुपये की अनियमितता की है। कुल मिलाकर 45 लाख 17 हजार 322 रुपये के गबन की आशंका जताई गई है।
मीठी नदी भ्रष्टाचार मामले में ईडी की महाराष्ट्र और केरल में छापेमारी, डिनो मोरिया भी रडार पर
पुरस्कार के लिए चुने गए अधिकारियों के बारे में गोपनीय रिपोर्ट, ईमानदारी, चरित्र, तकनीकी दक्षता, कार्यशैली और नवाचार जैसे बिंदुओं का मूल्यांकन किया जाता है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि जांच और शिकायतों के बावजूद स्नेहल अवसरमल का नाम पुरस्कार के लिए कैसे आगे बढ़ाया गया?
क्या चयन समिति को इन तथ्यों की जानकारी नहीं दी गई थी? या फिर यह प्रशासनिक चूक थी? यह मामला न केवल वन विभाग की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करता है, बल्कि चयन प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर भी गंभीर संदेह पैदा करता है। यदि आरोप सिद्ध होते हैं, तो यह राज्य प्रशासन की छवि को गहरा आघात पहुंचा सकता है।