
जलवायु परिवर्तन का खतरा (डिजाइन फोटो)
नवभारत डेस्क : हमारे देश में जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा सुख के रूप में दिखाई दे रहा है। इसका असर खेती बाड़ी और उन इलाकों के मौसम पर भी दिख रहा है, जहां पर हर साल 50 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन सूखे की चपेट में आती जा रही है। रिसर्च और तमाम तरह के शोध में इस बात का खुलासा हुआ है कि साल 1980 के बाद से सूखे की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है, जिसके लिए लोगों को जागरूक करने की आवश्यकता महसूस हो रही है। अन्यथा इसके और भी भयावह परिणाम हो सकते हैं। सूखा और जल संकट जलवायु परिवर्तन और अत्यधिक जल उपयोग के कारण पानी की भारी कमी हो रही है। सिंचाई के लिए पानी की कमी से फसलों की पैदावार प्रभावित हो रही है।
आमतौर पर कहा जाता है कि जल के असमान वितरण, असफल मानसून और पानी की कमी के कारण होता है। ‘सूखा’ शब्द को उस स्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। जब विभिन्न कारणों किसी इलाके में अपर्याप्त वर्षा, वाष्पीकरण की अत्यधिक दर, भूजल के स्रोतों की कमी या किसी अन्य कारण से पानी सिंचाई व पीने के पानी की उपलब्धता बहुत कम होती है या न के बराबर होती है। यह दायरा धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा है।
1980 के बाद से बढ़ा है खतरा
शोधकर्ताओं का कहना है कि साल 1980 के बाद से दुनिया में सूखे की समस्या लगातार बढ़ रही है और जलवायु परिवर्तन के कारण इसकी तीव्रता और बढ़ने की आशंका है। इसी के कारण देश में हर साल औसतन 50 हजार वर्ग किमी क्षेत्र सूखे की चपेट में आता जा रहा है। यह जानकारी स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट फॉर फॉरस्ट, स्नो एंड लैंडस्केप रिसर्च के नेतृत्व में किए गए उस शोध में सामने आई है, जिसमें इसको लेकर जानकारी एकत्रित की गयी थी। इस शोध के परिणाम साइंस जर्नल में प्रकाशित हो चुके हैं। शोधकर्ताओं ने 1980 से 2018 के बीच वैश्विक स्तर पर मौसम संबंधी आंकड़ों का विश्लेषण कर सूखे का एक मॉडल तैयार करने के बाद इसका विस्तार से अध्ययन किया है।
शोधकर्ताओं ने अपने रिसर्च के दौरान देखा कि लंबे और अधिक भीषण सूखे की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं, इसका असर खेती बाड़ी की भूमि पर भी दिख रहा है। इसी वजह से न सिर्फ धरती का पारिस्थितिकी तंत्र, कृषि और ऊर्जा उत्पादन प्रभावित हो रहा है, बल्कि इन पर इसका बहुत बड़ा नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। अध्ययन में पिछले 40 वर्षों के सार्वजनिक रूप से उपलब्ध आंकड़ों के विश्लेषण के बाद कई और जानकारियों का खुलासा किया गया है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि लगातार बढ़ते तापमान, दीर्घकालिक सूखा और वाष्पोत्सर्जन की अधिकता की वजह से पारिस्थितिकी तंत्र धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। इसी के कारण धरती से वनस्पतियों की हरियाली घटती जा रही है और कई स्थानों पर भारी बारिश भी देखने को मिल रही है।
जंगल भी बचाने होंगे
इस शोध के दौरान अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने उपग्रह चित्रों के जरिये वनस्पतियों में आए बदलावों पर नजर रखी है, जिससे सूखे के प्रभावों की निगरानी की जा सकती है। अध्ययन में यह भी पाया गया कि उष्णकटिबंधीय जंगल सूखे के प्रभाव को तब तक सहन कर सकते हैं जब तक कि उनके पास पर्याप्त जल भंडार मौजूद हो।
शोधकर्ताओं ने सूखे की प्रवृत्ति को देखकर कहा अगर इसी तरह से पानी की लगातार कमी बनी रही तो उष्णकटिबंधीय और बोरियल क्षेत्रों के पेड़ सूखने लगेंगे। यह हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरनाक स्थिति होगी। इससे बड़ी और स्थायी क्षति हो सकती है। बोरियल जंगलों को इस प्रकार की जलवायु आपदाओं से बड़ा झटका लगेगा। इससे उनको उबरने में सबसे अधिक समय भी लग सकता है।
लगातार बढ़ रही हैं बाढ़ और सूखे की घटनाएं
वैसे अगर देखा जाए तो भारत में बाढ़ और सूखे की घटनाएं बढ़ रही हैं। लेकिन उन्हें आपदा नहीं बनना चाहिए। यह इस बात पर निर्भर करता है कि समाज उनका प्रबंधन कैसे करता है। विश्व बैंक ने इन जलवायु चरम सीमाओं को बेहतर ढंग से प्रबंधित करने के लिए EPIC प्रतिक्रिया रूपरेखा प्रस्तुत की है। यह इस बात पर जोर देता है कि बाढ़ और सूखे को एक ही स्पेक्ट्रम के दो छोरों के रूप में संबोधित किया जाना चाहिए, और पूरे समाज को प्रतिक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए – जिसमें सरकार, निजी क्षेत्र, स्थानीय सरकार, शिक्षाविद और नागरिक समाज शामिल हैं। इस ढांचे को अब भारत के बाढ़-प्रवण राज्य असम में पायलट प्रोजेक्ट के रूप में लागू किया जा रहा है, साथ ही एक नया उपकरण भी उपलब्ध कराया जा रहा है, जो विभिन्न एजेंसियों को उनके बाढ़ और सूखा संरक्षण कार्यक्रमों की स्थिति का आकलन करने, यह पहचानने में सक्षम करेगा कि कहां सहयोग बढ़ाया जा सकता है, तथा समय के साथ प्रगति पर नज़र रखेगा।






