बाबू नागेश्वर प्रसाद (सोर्स- सोशल मीडिया)
Ek Kahani Azadi Ki: देश 15 अगस्त को आजादी की 78वीं सालगिरह मनाने जा रहा है। सभी नागरिक कृतज्ञता के साथ स्वातंत्र्य समर के योद्धों को नमन करेंगे। लेकिन की आजादी की लड़ाई में कैसे गुमनाम क्रांतिकारी रहे, जिन्हें इतिहास के पन्नों में समुचित स्थान नहीं मिल पाया। जिन्हें वह सम्मान नहीं मिल पाया जिसके वह असली हकदार थे।
‘एक कहानी आजादी की’ सीरीज के अंतर्गत हम स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे ही गुमनाम रणबांकुरों की एक दास्तान रोजाना आप तक पहुंचा रहे हैं। इस शृंखला की तीसरी किश्त में एक ऐसे ही महान स्वतंत्रता सेनानी की कहानी हम आपके लिए लेकर आए हैं। जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में अपना पूरा यौवन देश के लिए न्यौछावर कर दिया।
हम बात कर रहे हैं रांची के रणबांकुरे नागेश्वर प्रसाद की। जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की तमाम पाबंदियों के बावजूद, अपने दो-तीन साथियों के साथ लोहरदगा के बगडू पहाड़ी के घने जंगल में एक प्रेस की स्थापना की। उस प्रिंटिंग प्रेस का वज़न लगभग 500 से 600 किलोग्राम बताया जाता था। इस हस्तलिखित प्रिंटिंग प्रेस के ज़रिए वे लोगों को क्रांति के प्रति जागरूक करते थे।
उनके पोते रवि दत्त ने न्यूज वेबसाइट से बातचीत में बताया कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, उन्होंने अपने युवा साथियों के साथ ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कई प्रदर्शनों में हिस्सा लिया और ब्रिटिश सरकार का खजाना और हथियार लूटकर इतिहास में काकोरी कांड जैसी एक और घटना को अंजाम दिया। यह घटना रांची-डाल्टनगंज रेलमार्ग पर हुई थी।
बाबू नागेश्वर प्रसाद (सोर्स- सोशल मीडिया)
इस घटना के बाद नागेश्वर प्रसाद अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बन चुके थे, ब्रिटिश सरकार उन्हें किसी भी कीमत पर पकड़ना चाहती थी, एक मुखबिर की सूचना पर 23 जुलाई 1942 को उन्हें मंदार के पास घेरकर गिरफ्तार कर लिया गया, और घंटों बर्फ की सिल्लियों पर लिटाकर उनकी पिटाई की गई, उनके नाखूनों में सुइयां चुभोई गईं।
इसके बाद रांची जेल में सजा काटते समय उनकी पत्नी का निधन हो गया। अदालत से पैरोल न मिलने पर वे जेल से फरार हो गए। हालांकि श्मशान घाट पर पहले से मौजूद पुलिस ने उन्हें फिर से पकड़ लिया, लेकिन उन्हें अंतिम संस्कार की अनुमति दे दी गई और फिर वे जेल चले गए।
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स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान, नागेश्वर बाबू का एक अंग्रेज़ अधिकारी से सीधा टकराव हुआ। उसने उन पर गोली चला दी, वे किसी तरह बच गए, लेकिन जवाबी कार्रवाई में अंग्रेज़ अधिकारी ने भी गोली चला दी, जो उनके पैर में लगी और जीवन भर के लिए फंस गई। यही वजह है कि आज़ादी के बाद अपने आखिरी दिनों में भी वे लंगड़ाकर चलते थे। आज़ादी के बाद उनकी भागदौड़ बंद हो गई।