एम. करुणानिधि (फोटो- सोशल मीडिया)
Karunanidhi Death Anniversary: जब किसी राजनेता को याद किया जाता है, तो सिर्फ उनके पद नहीं, बल्कि उनके फैसले, उनके शब्द और उनके विवाद भी याद आते हैं। कोई उन्हें नीतियों के लिए सराहता है, तो कोई उनके तंज भरे बयानों को याद करता है। आज हम एक ऐसे ही राजनेता की बात करेंगे। जिसने कभी मंच से राजीव गांधी को ‘मेंढ़क’ कहा, तो कभी प्रचार के नाम पर सिर्फ तीन फिल्में बनवाकर चुनाव जीत लिया। जो ईश्वर में विश्वास तो रखते थे, लेकिन चाहते थे कि उनकी अंतिम यात्रा में कोई धार्मिक कर्मकांड न हो। हम बात कर रहे हैं तमिलनाडु के पांच बार के मुख्यमंत्री मुथुवेल करुणानिधि यानी एम. करुणानिधि की।
करुणानिधि का राजनीतिक सफर आज़ादी से पहले दक्षिण भारत में उठे द्रविड़ आंदोलन के दौरान शुरू हुआ। उस दौर में वे बच्चों की कहानियां लिखा करते थे। इसके बाद उन्होंने मुरासोली नाम से एक पत्र निकालना शुरू किया, जो आगे चलकर उनकी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) का मुखपत्र बना। इसमें करुणानिधि ‘ओ भाई’ नाम से कॉलम लिखते थे, जिसमें वे ब्राह्मणवाद के खिलाफ आलोचनात्मक ढंग से लिखते थे। इन्हीं लेखों के चलते वे पेरियार और अन्नादुरै की नजर में आए और राजनीति में शामिल हो गए।
राजनीति में आने से पहले ही करुणानिधि तमिलनाडु में एक प्रसिद्ध नाम बन चुके थे। इसकी सबसे बड़ी वजह थीं फिल्में। 1950 के दशक में वे सक्रिय रूप से तमिल फिल्मों के संवाद लिखते थे। उनकी फिल्मों को इतनी लोकप्रियता मिली कि पोस्टरों पर उनका नाम भी छपने लगा जैसे बाद में हिंदी सिनेमा में सलीम-जावेद का होता था। इसी दौर में उनकी मुलाकात सुपरस्टार एम. जी. रामचंद्रन (एमजीआर) से हुई। दोनों द्रविड़ आंदोलन से प्रभावित थे, इसलिए जल्दी ही घनिष्ठ मित्र बन गए जो आगे चलकर कट्टर प्रतिद्वंद्वियों में भी बदल गए।
1952 में आई फिल्म पराशक्ति को उनका सबसे बेहतर काम माना जाता है। इस फिल्म में एक लड़की के साथ एक पंडित, एक साहूकार और मकान मालिक गलत काम करते हैं। फिल्म का नायक कोर्ट में तीनों के खिलाफ केस लड़ता और रीति-रिवाज के नाम पर होने वाले अत्याचार की पोल खोलता है। फिल्म का कोर्ट रूम का वो सीन और डायलॉग इतने प्रसिद्ध हुए कि आने वाले कई सालों तक इसे तमिल सिनेमा में काम पाने की चाबी माना गया। रजनीकांत और कमल हासन जैसे एक्टर्स ने अपने ऑडिशन यही सीन करके काम पाया था।
1985 में तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव हो रहे थे। करुणानिधि ने जनता पार्टी के साथ गठबंधन किया था, जबकि उनके सामने थे एमजीआर, जो उस समय राजीव गांधी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे। एक रैली में राजीव गांधी ने करुणानिधि और जनता पार्टी के गठबंधन को ‘केकड़ों का गठबंधन’ कहते हुए कहा कि, जैसे ही कोई ऊपर चढ़ता है, बाकी उसे नीचे खींच लेते हैं। इस पर करुणानिधि भड़क उठे और एक रैली में जवाब देते हुए बोले:
“हमें केकड़ा कहते हैं, लेकिन केकड़ा अपनी मजबूत पकड़ के लिए जाना जाता है। हमारी पकड़ जनता पर है। आप अपना सोचिए, जो चूहे और मेंढ़क की तरह हैं। जिन्हें ये ही नहीं पता कि उन्हें जमीन पर रहना है या पानी में। बाज आएगा और दोनों को उड़ा ले जाएगा।” हालांकि इस चुनाव में एमजीआर और कांग्रेस को जीत मिली और करुणानिधि लगातार तीसरी बार हार गए।
1989 के चुनाव में कांग्रेस और एमजीआर की पार्टी ने प्रचार के लिए अलग-अलग तरीके अपनाए। कांग्रेस ने गांव-गांव रंगीन टीवी लगे वाहन भेजे, जिनमें पार्टी के कामों की तारीफ में बनी फिल्में दिखाई जाती थीं। उस समय एमजीआर का निधन हो चुका था और जयललिता ने अपनी अलग पार्टी बना ली थी। उन्होंने भी एमजीआर और अपनी फिल्मों का उपयोग प्रचार में किया।
वहीं करुणानिधि ने तीन विशेष फिल्में बनवाईं। एक बोफोर्स घोटाले पर, दूसरी एमजीआर, जानकी और जयललिता के रिश्तों पर तंज कसती हुई, और तीसरी उनकी पार्टी के घोषणा पत्र पर आधारित थी। इन फिल्मों को उन्होंने पूरे तमिलनाडु में गांव-गांव दिखाया। नतीजा यह हुआ कि उन्होंने लगातार तीन चुनावी हार के बाद जीत दर्ज की और मुख्यमंत्री बने।
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करुणानिधि नास्तिक विचारधारा के समर्थक थे, लेकिन धार्मिक सहिष्णुता के पक्षधर भी। उन्होंने कभी मंदिर नहीं गए, लेकिन लोगों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान किया। उन्होंने रामायण के वैज्ञानिक पहलुओं पर सवाल उठाए, फिर भी रामसेतु से जुड़े वैज्ञानिक परीक्षणों का समर्थन किया। अपनी वसीयत में उन्होंने लिखा था कि उनकी अंतिम यात्रा बिना किसी धार्मिक कर्मकांड के हो। इसलिए जब 7 अगस्त 2018 को उनका निधन हुआ तो उनके परिवार ने उनकी अंतिम इच्छा का सम्मान करते हुए कोई भी कर्मकांड नहीं किया और चेन्नई के मरीना में द्रविड़ नेताओं की तरह अंतिम संस्कार किया।