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Mohammad Rafi Birthday: बाल काटने से लेकर शहंशाह-ए-तरन्नुम तक का सफर, फकीर से ली प्रेरणा, अपने संगीत से 3 पीढ़ियों पर किया राज

मोहम्मद रफ़ी, शहंशाह-ए-तरन्नुम, संगीत की दुनिया के एक महानायक थे। उन्होंने बाल काटने से लेकर संगीत के शिखर तक का सफर तय किया। उनकी आवाज़ ने तीन पीढ़ियों को मंत्रमुग्ध किया और आज भी उनका संगीत जीवित है।

  • By अदिति भंडारी
Updated On: Dec 24, 2024 | 07:00 AM

मोहम्मद रफ़ी (सौ. सोशल मीडिया)

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मुंबई: मोहम्मद रफ़ी संगीत की दुनिया में एक ऐसा नाम है जिससे हर शख्स जानता है। उनकी गायकी के शब्द कान से दिल तक जाते हैं। मोहम्मद रफी की गायकी तीन पीढ़ी के लोगों द्वारा पसंद की जाती है। मोहम्मद रफी बचपन से ही सुरीली आवाज के धनी थे। उनका जन्म 24 दिसम्बर 1924 में अमृतसर के कोटला सिंह वाले हाजी आली मोहम्मद के घर हुआ था।

कौन जानता था कि छोटे रफ़ी शहंशाह-ए-तरन्नुम कहलाएंगे। रफ़ी अपने घर के दूसरे बेटे थे। वे अपने माता-पिता और अपने बड़े भाई के साथ रहते थे। जब रफी 7 साल के थे तब उनके परिवार को काम के सिलसिले में लाहौर शिफ्ट होना पड़ा। रफ़ी के बड़े भाई वहां नाई की दुकान चलाते थे।

मोहम्मद रफ़ी को शुरू से ही पढ़ाई-लिखाई करना पसंद नहीं था। जिस कारण उन्होंने अपने भाई के साथ बाल काटना शुरू कर दिया। नाई का काम करते समय ही उनके जीवन में एक फकीर फरिश्ता बनकर आया और उसने रफ़ी की दुनिया पलट दी। ये फकीर गलियों में गाना गाते हुए घूमता था। जिससे देख रफ़ी प्रभावित हो गए और उसके पीछे-पीछे उसकी नकल करते घूमने लगे। मोहम्मद रफ़ी को संगीत की प्रेरणा उस फकीर से ही मिली थी। उस फकीर की नकल करते-करते रफ़ी की करिश्माई आवाज फूट पड़ी जिसे सभी के कानों में राज करना शुरू कर दिया।

रफ़ी की दुकान पर आने वाले लोग उसकी आवाज के दीवाने हो गए। रफ़ी की कला को देख उनके भाई ने उन्हें उस्ताद अब्दुल वाहिद के पास संगीत की तालीम लेने के लिए भेजा। वहाँ से रफ़ी के सुरों में धार लगना शुरू हुई। सुरों के साथ खेलते हुए रफी 13 साल के ही थे। अब वह समय आ गया था जिसने रफ़ी को करियर के पहले पायदान पर चढ़ाया। साल 1931 में लाहौर में आकाशवाणी पर फेमस गायक सुन्दर लाल सहगल को गाने के लिए आमंत्रित किया गया था। उन्हें सुनने सभी लोग वहां पहुंचे पर अचानक लाइट के चले जाने के कारण सुन्दर लाल ने गाने से इनकार कर दिया।

उस समय मोहम्मद रफ़ी के बड़े भाई ने अपना फर्ज निभाया और आयोजक से महफिल में गाने के लिए रफ़ी को एक मौका देने को कहा। 13 साल के रफ़ी जब स्टेज पर आए तो उन्हें देख सभी हैरान हो गए और जब रफ़ी ने गाना शुरू किया तो सभी के होश उड़ गए। रफ़ी की आवाज चारों ओर गूंजने लगी। गाना खत्म होते ही तालियों की गड़गड़ाहट ने पूरे लाहौर को हिलाकर रख दिया। इसके बाद रफ़ी ने कभी पीछे मुड़कर भी नहीं देखा।

इसके बाद साल 1944 में मोहम्मद रफ़ी को पंजाबी फिल्म गुल बलोच में गाना गाने का मौका मिला। इसके बाद रफ़ी ने साल 1946 में मायानगरी मुंबई का रुख कर लिया। मुंबई में संगीत की साधना शुरू करने वाले मोहम्मद रफ़ी को संगीतकार नौशाद ने मौका दिया और पहले आप फिल्म में गाना गवाया। इसके बाद मोहम्मद रफी की महानता के महल में पहली ईंट लग गई।

इसके बाद रफ़ी ने फिल्मों में भी अपना जादू बिखेरना शुरू कर दिया। जिसमें रफ़ी को दिलीप कुमार और देवआनंद जैसे कलाकारों के लिए गाने का मौका मिला। बस यहीं से सितारों का आना शुरू हो गया और देखते ही देखते मोहम्मद रफ़ी खुद एक सितारा बन गए। चौदहवीं का चांद हो, मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की क़सम, चाहूंगा मैं तुझे, छू लेने दो नाजुक होठों को जैसे कई अमर गाने देने वाले रफ़ी साहब 31 जुलाई 1980 को इस दुनिया में अपनी अमिट छाप छोड़कर अलविदा कह गए।

मोहम्मद रफ़ी ने अपने करियर में हिंदी के अलावा असामी, कोंकणी, भोजपुरी, ओड़िया, पंजाबी, बंगाली, मराठी, सिंधी, कन्नड़, गुजराती, तेलुगू, माघी, मैथिली, उर्दू, के साथ-साथ इंग्लिश, फारसी, और अरबी भाषा में 4516 से ज्यादा गानों को अपनी आवाज से तराशा है। मोहम्मद रफी के कई गाने आज भी लोगों के कानों को वही ठंडक पहुंचाते हैं।

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Mohammad rafi birthday journey from cutting hair to becoming shahenshah e tarannum took inspiration from a fakir

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Published On: Dec 24, 2024 | 07:00 AM

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