झारखंड विधानसभा चुनाव में इस बार कई ऐसे मुद्दे है जो उठाए नहीं गए है। चुनावों से पहले जो मुद्दे उठे वो भी चुनाव शुरू होते ही ठंडे बस्ते में चले गए। इसके कारण झारखंड चुनाव का समीकरण अब बदल गया है और इससे सियासी माहौल भी बदल गया है।
झारखंड चुनाव (सौजन्य-एएनआई)
झारखंड विधानसभा चुनाव ने इस बार नया मोड़ ले लिया है। झारखंड विधानसभा चुनाव में इस बार न तो पारंपरिक मुद्दे और न ही पुराने समीकरण की गूंज है। इस बार इन इन 5 फैक्टर्स के कारण झारखंड में चुनावी समीकरण और मुद्दे बदल गए है।
60 बनाम 40 का मुद्दा: जब झारखंड की स्थापना हुई थी जब से झारखंड में 60 बनाम 40 का मुद्दा चल रहा है। झारखंड की स्थानीय पार्टियों के मुताबिक राज्य की 60 प्रतिशत आबादी स्थानीय है और 40 प्रतिशत आबादी बाहर की है। 2019 में हेमंत सोरेन की सत्ता वापसी ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई थी लेकिन इस बार इस नारे की चर्चा न के बराबर ही हो रही है।
जाति को लेकर चुनाव: देखा जाए तो झारखंड में आमतौर पर आदिवासी, कुर्मी और यादव जातियों का दबदबा रहा है। झारखंड की सियासत में इस बार घुसपैठी और आदिवासी अस्मिता ही बड़ा मुद्दा दिख रहा है। चुनाव से पहले कुर्मी समुदाय को जोड़ने के लिए क्षेत्रीय नेता जयराम महतो ने शुरुआत की लेकिन अब मामला ठंडे पड़ गया है।
महिलाओं का सहभाग: इस बार झारखंड में महिलाओं का भी बोलबाला है। धर्म, जाति और समुदाय के बीच बंटे झारखंड में इस बार महिलाओं का नया वोटबैंक बना है। दोनों ही गठबंधन के केंद्र में इस बार महिलाएं हैं और महिला वोटों को भी तवज्जौ दे रही हैं।
तीन मोर्चों का नहीं दिखा दम: झारखंड के चुनाव में शुरुआत से तीन मोर्चे का दबदबा दिखता रहा है। 2005 के चुनाव में एक तरफ बीजेपी-जेडीयू का गठबंधन था तो दूसरी तरफ कांग्रेस और झामुमो ने मोर्चा तैयार किया था। आरजेडी, आजसू और माले जैसी पार्टियां पूरे चुनाव को प्रभावित करने में कामयाब रही थी।
बिहार का घटा दबदबा: झारखंड की सियासत में पहले बिहार की पार्टियों का खासा दबदबा हुआ करता था। 2019 में एक सीट जीतने वाली आरजेडी को हेमंत ने कैबिनेट में जगह दी, लेकिन इस बार बिहार की पार्टियों का सियासी दबदबा घट गया है।