लालू प्रसाद यादव (डिजाइन फोटो)
पटना: बिहार देश के उन सूबों में पहले पायदान पर आता है जहां से निकली सियासी कहानियां ‘दस्तावेज’ बन जाती हैं। यहां की हर एक गली और कूचे में राजनीति पर बारीक नज़र रखने वाले लोग और सूबे का कोई न को दिलचस्प सियासी किस्सा मिल ही जाता है। बात जब समूचे राज्य के किसी बड़े सियासतदान से जुड़ी घटना की हो तब तो क्या ही कहना…
बिहार में इंतख़ाब की घड़ियां नजदीक हैं। सियासी दल और सियासतदान अपने विरोधियों को मात देने के लिए रणनीति बनाने में जुट गए हैं। जनता चुनावी माहौल में राजनैतिक चर्चाओं में जुट गई है। सियासी पंडित चुनावी समीकरण और गुणा गणित लगाने में जुट गए हैं। इन हलचलों के बीच हम भी हर रोज ‘सियासत-ए-बिहार’ की एक कहानी लेकर आपके बीच हाजिर हो रहे हैं।
बिहार की राजनीति लंबे समय से गठबंधन के इर्द-गिर्द घूमती रही है। आखिरी पूर्ण बहुमत की सरकार साल 1995 में जनता दल ने बनाई थी। तब झारखंड और बिहार एक ही हुआ करते थे। लेकिन इसके बीच कार्यकाल में ही लालू यादव ने जनता दल से नाता तोड़ते हुए 1997 में आरजेडी का गठन किया। उन्हें 163 विधायकों का समर्थन था बाकी जेएमएम और कांग्रेस को मिलाकर आरजेडी की सरकार बना ली।
2000 के चुनाव में फिर से आरजेडी ने 124 सीटें जीतीं और राबड़ी देवी 2005 तक सूबे की सीएम रहीं। इसके बाद पिछले 20 सालों यानी 2005 से नीतीश कुमार गठबंधन सरकार चला रहे हैं, हालांकि इससे पहले भी कई गठबंधन सरकारें बनी हैं। जब लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तब भी गठबंधन सरकार बनी थी।
गठबंधन की राजनीति के कारण ही एक-दूसरे के कट्टर विरोधी माने जाने वाले लालू और नीतीश 2015 के चुनाव में साथ आए थे। लेकिन आज बात करते हैं उस चुनाव की जिसमें रामविलास पासवान ‘किंगमेकर’ की भूमिका में थे और उनके एक कदम ने लालू यादव और उनकी पार्टी को बिहार की सत्ता से बेदखल कर दिया था।
साल था 2005, राबड़ी देवी बिहार की मुख्यमंत्री थीं। फरवरी-मार्च में हुए बिहार विधानसभा चुनाव ने एक तरफ जहां सभी राजनीतिक पंडितों को चुप करा दिया, वहीं चौथी बार सत्ता का सपना देख रही आरजेडी सत्ता से दूर रह गई। इस चुनाव परिणाम में सत्ताधारी पार्टी आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बनकर जरूर उभरी लेकिन सरकार बनाने से काफी दूर रह गई।
वहीं, तत्कालीन विपक्ष एनडीए गठबंधन था, जो भी सत्ता से काफी दूर रह गया। दरअसल, इस चुनाव परिणाम में लोक जनशक्ति पार्टी ‘किंगमेकर’ बनकर उभरी। लोजपा ने इस चुनाव में 29 सीटों पर जीत हासिल की। जिसके बाद स्थिति यह हुई कि वह जिसके साथ जाएगी, सूबे में उसकी सरकार बन जाएगी।
पूर्व केंद्रीय मंत्री और लोजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रामविलास पासवान का बिहार ही नहीं बल्कि देश की राजनीति में भी काफी बड़ा स्थान रहा है। इसका अंदाजा सिर्फ एक चुनाव परिणाम से ही नहीं बल्कि उनके जीवन से भी लगाया जा सकता है। रामविलास एकमात्र ऐसे राजनेता थे, जिन्होंने देश के 6 प्रधानमंत्रियों के साथ केंद्रीय मंत्री के तौर पर काम किया। पासवान को ‘राजनीतिक का मौसम वैज्ञानिक’ भी कहा जाता था।
2005 के चुनाव परिणाम में लोजपा के खाते में 29 सीटें आई थीं। उस समय रामविलास केंद्र की यूपीए सरकार में मंत्री थे। उन्होंने यह चुनाव कांग्रेस के साथ गठबंधन में लड़ा था, कांग्रेस को सिर्फ 10 सीटें मिली थीं। जबकि आरजेडी को 75, जेडीयू को 55 और बीजेपी को 37 सीटें मिली थीं।
इस चुनाव परिणाम के बाद किंग मेकर की भूमिका में रामविलास पासवान ने लालू प्रसाद के सामने यह शर्त रखी कि अगर लालू प्रसाद मुसलमानों के सच्चे हितैषी हैं तो उन्हें राज्य की कमान किसी मुसलमान को सौंप देनी चाहिए, ऐसी स्थिति में लोजपा उस सरकार का समर्थन करेगी।
लालू यादव किसी भी हालत में सत्ता की कुर्सी अपने परिवार से जाने नहीं देना चाहते थे। यह सारी राजनीतिक गतिविधि उस समय हो रही थी जब लालू यादव और रामविलास पासवान दोनों ही केंद्र की यूपीए सरकार में मंत्री थे। लेकिन रामविलास ने लालू यादव के खिलाफ पूरी तरह से मोर्चा खोल दिया था, चुनाव के दौरान भी उन्होंने खूब प्रचार किया था कि लालू और आरजेडी की सरकार सबसे भ्रष्ट है और यहां जंगल राज होगा। रामविलास पासवान की एक चाल से लालू प्रसाद पूरी तरह से मात खा गए थे।
दरअसल, एम वाय यानी मुस्लिम+यादव समीकरण के तहत लालू यादव और राबड़ी देवी ने बिहार में तीन बार सत्ता का स्वाद चखा था। ऐसे में रामविलास 2025 के चुनाव परिणाम में खुद को मुसलमानों का सच्चा हितैषी दिखाने की कोशिश कर रहे थे। हालांकि, इसका नतीजा यह हुआ कि रामविलास को सत्ता नहीं मिली और लालू यादव और उनकी पार्टी आज तक बिहार में वनवास से वापस नहीं आ पाई है।
हालांकि 2015 और 2022 में आरजेडी नीतीश सरकार का हिस्सा जरूर रही, लेकिन मुख्यमंत्री का सपना अधूरा रह गया। 2015 और 2020 के चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी (आरजेडी) होने के बावजूद लालू के बेटे तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री पद से संतोष करना पड़ा।
2005 के बिहार चुनाव में एलजेपी से 29 विधायक जरूर चुने गए थे। लेकिन उनके ज्यादातर विधायक वो थे जो धन और बाहुबल के बल पर विधानसभा पहुंचे थे और रामविलास के मुस्लिम मुख्यमंत्री के कदम के बाद धीरे-धीरे 12 विधायक टूटने की कगार पर पहुंच गए। पार्टी को टूटता देख रामविलास ने राज्यपाल से राष्ट्रपति शासन की अपील की और फिर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।
यह भी कहा जाता है कि अगर रामविलास ने लालू यादव के सामने मुस्लिम मुख्यमंत्री की शर्त नहीं रखी होती तो शायद आज का राजनीतिक परिदृश्य कुछ और होता। यह भी माना जाता है कि नीतीश कुमार के बिहार के पूर्णकालिक मुख्यमंत्री बनने की संभावना बहुत कम थी।
यह भी माना जाता है कि अक्टूबर-नवंबर 2005 और 2010 के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम मुख्यमंत्री की रामविलास की शर्त न मानने का खामियाजा लालू यादव को भुगतना पड़ा था। राष्ट्रपति शासन के बाद हुए चुनावों में नीतीश कुमार मुसलमानों को अपने पक्ष में लाने में सफल रहे और राज्य की सत्ता में आ गए।