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पुराना वाम दल नई सियासी चुनौती, जानिए CPI का अब तक कैसा रहा है राजनीतिक सफर

CPI in Bihar Election: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) बिहार चुनावों में महागठबंधन का अहम हिस्सा है। सीमित सीटों पर लड़ने के बावजूद, वाम राजनीति में इसकी उपस्थिति निर्णायक साबित हो सकती है।

  • By अमन उपाध्याय
Updated On: Oct 28, 2025 | 02:32 PM

CPI का अब तक राजनीतिक सफर. (कॉन्सेप्ट फोटो)

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Bihar Assembly Elections 2025:  बिहार विधानसभा चुनावों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI), ‘महागठबंधन’ (INDIA गठबंधन) का हिस्सा है। 2020 के विधानसभा चुनाव में CPI ने 2 सीटों पर जीत हासिल की थी। CPI का चुनावी कैंपेन भूमि सुधार, मज़दूरों के अधिकार, सामाजिक न्याय और सांप्रदायिकता के विरोध जैसे मुद्दों पर केंद्रित है। भले ही CPI बड़ी संख्या में सीटों पर चुनाव न लड़े, लेकिन कुछ विशेष विधानसभा क्षेत्रों में इसके उम्मीदवार और कैडर चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं, जिससे यह महागठबंधन के लिए एक आवश्यक सहयोगी बनी हुई है।

भाकपा ने वाम मोर्चे की राजनीति में ख़ुद का इस तरह समाहित कर लिया है कि कई गम्भीर मसलों पर भी इसने एक सीमा से ज़्यादा माकपा का विरोध नहीं किया है। सिर्फ़ कुछ मौकों पर ही इसने अपनी स्वायत्तता दिखाई है, लेकिन अधिकांश मसलों पर इसकी रणनीति वाममोर्चे की रणनीति का भाग होती है।

यद्यपि माकपा देश के तीन राज्यों में काफ़ी मज़बूत स्थिति में है, लेकिन भाकपा का विस्तार देश के दूसरे भागों में ज़्यादा रहा है। मसलन, बिहार, छत्तीसगढ़, और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी भाकपा की मज़बूत उपस्थिति रही है। लेकिन बिहार जैसे राज्यों में इसने अपना आधार काफ़ी हद तक खो दिया है, क्योंकि अब पहचान की राजनीति के सामने वह अपनी प्रासंगिकता साबित करने में नाकाम रही है।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party of India – CPI) भारत की सबसे पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी है, जिसकी स्थापना 26 दिसंबर 1925 को कानपुर नगर में हुई थी। इसकी स्थापना एम.एन. रॉय ने की थी और इसके स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता सिंगरावेलु चेट्टियार ने की थी। 1928 में, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की कार्यप्रणाली को निर्धारित किया। वर्तमान में, डी. राजा इस दल के महासचिव हैं। पार्टी ‘न्यू एज’ नामक पत्रिका का प्रकाशन करती है और इसका युवा संगठन ‘ऑल इंडिया यूथ फेडरेशन’ है। चुनावी प्रदर्शन के मामले में, CPI ने 2004 के संसदीय चुनाव में 10 सीटें जीतीं, लेकिन 2009 में यह घटकर 4 और 2014 में केवल 1 सीट रह गई। 10 अप्रैल 2023 को भारत निर्वाचन आयोग द्वारा इसका राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा वापस ले लिया गया।

स्थापना तिथि पर विवाद और प्रारंभिक नेतृत्व

CPI की स्थापना तिथि को लेकर कम्युनिस्ट आंदोलन में कुछ विवाद रहा है। CPI स्वयं 25 दिसंबर 1925 को कानपुर में हुई पार्टी कांग्रेस को अपनी स्थापना मानती है। हालांकि, 1964 में CPI से अलग हुई मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (CPM) का मानना है कि पार्टी का गठन 17 अक्टूबर 1920 को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस के तुरंत बाद हुआ था। यह कहा जा सकता है कि 1920 से ही पार्टी के गठन की प्रक्रिया चल रही थी, लेकिन औपचारिक रूप से यह 1925 में ही गठित हुई। इसके शुरुआती प्रमुख नेताओं में मानवेन्द्र नाथ रॉय, अबनी मुखर्जी, मोहम्मद अली और शफीक सिद्दीकी शामिल थे।

आजादी के बाद वैचारिक मतभेद और आंतरिक संघर्ष

भारत की आजादी के समय, भारतीय राज्य की प्रकृति पर CPI के भीतर गहन वाद-विवाद हुआ। पार्टी ने संविधान सभा में भाग नहीं लिया। आजादी के समय पी.सी. जोशी CPI के महासचिव थे, जिन्होंने सत्ता हस्तांतरण को वास्तविक बताया और कांग्रेस के प्रति नरम रुख अपनाने की वकालत की। हालांकि, उन्हें पर्याप्त समर्थन नहीं मिला। बी.टी. रणदिवे के नेतृत्व में एक खेमे ने सशस्त्र संघर्ष द्वारा सत्ता पर कब्जा करने की बात कही, जबकि ‘आंध्रा लाइन’ ने माओ के लोक-युद्ध की वकालत की। 1948 की कलकत्ता कांग्रेस में रणदिवे लाइन की जीत हुई, लेकिन तेलंगाना आंदोलन के दमन और चीनी क्रांति की सफलता ने ‘आंध्रा लाइन’ को मजबूत किया, जिससे 1950 में सी. राजेश्वर राव ने नेतृत्व संभाला।

CPI के झंडे

भारत की आजादी को दी मान्यता

इस आंतरिक विवाद को सुलझाने के लिए, पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता मास्को गए, जहाँ लंबी चर्चा के बाद तीन दस्तावेज तैयार हुए। इन दस्तावेजों में भारत को एक निर्भर और अर्ध-औपनिवेशिक देश बताया गया, और नेहरू सरकार को जमींदारों, बड़े पूंजीपतियों और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितों को पूरा करने वाला बताया गया। हालांकि, भारतीय पूंजीपति वर्ग में राष्ट्रवादी और गैर-सहयोगी तत्व भी स्वीकार किए गए। इसके बाद, मध्यमार्गी नेता अजय घोष ने पार्टी की कमान संभाली। इस दौर में पार्टी ने भारत की आजादी को मान्यता दी और संविधान को स्वीकार करते हुए चुनावों में भाग लेने का फैसला किया।

केरल में ऐतिहासिक जीत और सोवियत-चीन विभाजन का प्रभाव

पहले आम चुनावों में CPI को लोकसभा में 16 सीटें मिलीं, जिससे यह मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी। 1957 में, केरल में ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में CPI की सरकार बनी, जो विश्व की पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार थी। हालांकि, 1959 में नेहरू सरकार ने इसे बर्खास्त कर दिया।

1960 के दशक की शुरुआत में सोवियत संघ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच संबंध बिगड़ने लगे, जिसने अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट एकता को प्रभावित किया और CPI के विभाजन का कारण बना। 1962 के भारत-चीन युद्ध ने भी पार्टी के भीतर विभाजन को गहरा किया। एक धड़े ने भारत सरकार की नीति का समर्थन किया, जबकि दूसरे ने इसे समाजवादी और पूंजीवादी राज्यों के बीच टकराव बताया। सोवियत समर्थक धड़े ने कांग्रेस के साथ सहयोग का विचार आगे बढ़ाया, जिसे दूसरे धड़े ने ‘वर्ग-सहयोग’ के संशोधनवादी विचार की संज्ञा दी।

विभाजन और वाम मोर्चे का गठन

1964 में CPI का विभाजन हो गया और एक नई पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (CPM) का उदय हुआ। नम्बूदरीपाद, ज्योति बसु, हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे कई जुझारू नेता CPM में शामिल हो गए, जिससे पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में CPI का आधार नकारात्मक रूप से प्रभावित हुआ। 1970-77 के बीच CPI ने केरल में कांग्रेस के साथ गठबंधन कर सरकार बनाई, जिसमें सी. अच्युत मेनन मुख्यमंत्री बने। इस दौरान, CPI ने इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का भी समर्थन किया।

यह भी पढ़ें:- सत्ता में वापसी को तैयार भाजपा, नीतीश के साथ फिर मैदान में NDA, जानें क्या कहता है समीकरण

1977 के बाद, CPI ने CPM और अन्य छोटी कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ मिलकर वाम मोर्चे का गठन किया। अधिकांश जगहों पर यह पार्टी CPM के एक छोटे सहयोगी दल में बदल गई। 1990 के दशक के बाद, CPI ने धर्मनिरपेक्ष और गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेसी दलों की राजनीति को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित किया। 1996 के लोकसभा चुनावों के बाद, इसने संयुक्त मोर्चे की सरकारों में शामिल होने का ऐतिहासिक फैसला किया, जिसमें इंद्रजीत गुप्त ने गृह मंत्रालय और चतुरानन मिश्र ने कृषि मंत्रालय संभाला, जिससे इसकी राजनीतिक स्वायत्तता प्रदर्शित हुई।

मौजूदा दौर की चुनौतियां और भविष्य की राह

2004 में, CPI ने संप्रग सरकार को बाहर से समर्थन दिया, लेकिन 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते के मुद्दे पर समर्थन वापस ले लिया। 2009 और 2014 के चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन खराब रहा। CPI की राजनीति की कुछ स्पष्ट सीमाएँ रही हैं: वाम मोर्चे में CPM के साथ उसका आत्मसात हो जाना, बिहार जैसे राज्यों में अपना आधार खोना, नए क्षेत्रों में विस्तार करने में विफलता, और जमीनी स्तर पर संघर्ष से कथित तौर पर मुंह मोड़ना। हालाँकि, भ्रष्टाचार से मुक्त रहने और जनोन्मुखी कानूनों के लिए दबाव बनाने में इसकी भूमिका सराहनीय रही है। CPI के लिए मुख्य चुनौती यह है कि वह वाम मोर्चे का हिस्सा होते हुए भी CPM की ‘फोटोकॉपी’ बनने से बचे और अपनी स्वतंत्र राजनीति कायम करे। इसके अलावा, देश के विभिन्न हिस्सों में अपना जनाधार बढ़ाना भी इसके लिए एक बड़ी चुनौती है।

Bharatiya communist party cpi role in bihar elections history ideology

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Published On: Oct 28, 2025 | 02:22 PM

Topics:  

  • Bihar
  • Bihar Assembly Election 2025
  • Bihar News

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