नवभारत निशानेबाज (डिजाइन फोटो)
नवभारत डेस्क: पड़ोसी ने हमसे कहा, ‘निशानेबाज, जनतंत्र और राजतंत्र के बीच विशेष फर्क क्या है? तंत्र या सिस्टम तो तब भी था और अब भी है। वही प्रशासन वैसी ही व्यवस्था! वैसी ही मनमानी, वैसा ही शोषण! आखिर बदला क्या है? पहले एक राजा हुआ करता था जबकि आज जनप्रतिनिधि का नकाब पहने हुए अनेक राजा मौजूद हैं। जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसा माहौल है।’
हमने कहा, ‘आपकी सोच नकारात्मक है। हमारा देश आबादी के लिहाज से विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है जिसमें अनेक भाषाएं व भिन्न संस्कृतियां हैं। इतने पर भी अनेकता में एकता हमारी पहचान है। हमारे सांसदों को देखिए जिनमें से अधिकांश करोड़पति हैं पिछले 15 वर्षों में उनका वेतन 675 प्रतिशत बढ़ गया है मतलब पौने सात गुना।
अब सांसद का वेतन 1,24,000 रुपए मासिक है। इसके अलावा उन्हें 70,000 रुपए निर्वाचन क्षेत्र भत्ता, 60,000 रु। कार्यालयीन भत्ता, अधिवेशन काल में 2500 रु। रोज भत्ता, 50,000 मुफ्त बिजली यूनिट दिल्ली में सरकारी बंगला, सालाना 4,000 किलोलीटर मुफ्त पानी, वर्ष में 34 मुफ्त घरेलू हवाई उड़ानें तथा असीमित प्रथम श्रेणी ट्रेन यात्रा का प्रावधान है। कार से प्रवास करें तो माइलेज भत्ता भी मिलता है। हमारे जनप्रतिनिधियों की समृद्धि हमारे लोकतंत्र की समृद्धि है। इस पर गर्व कीजिए।’
पड़ोसी ने कहा, ‘निशानेबाज, तस्वीर का दूसरा पहलू देखिए। भारत में मानव श्रम को यथोचित सम्मान नहीं मिलता। भारत सबसे कम वेतन देनेवाला देश है। यहां दिहाडी श्रमिकों को 8,125 रुपए वेतन दिया जाता है। 80 करोड़ से अधिक लोगों को मुफ्त अनाज न दिया जाए तो वे भूखे मर जाएं। बेरोजगारी चरम पर है।
आश्चर्य इस बात का है कि जिन नेताओं को गरीबी का ‘ग’ और महंगाई का ‘म’ भी नहीं मालूम, वे गरीबी और महंगाई पर चर्चा करते है। नीति आयोग की मोटी तनख्वाह पानेवाले विशेषज्ञ एसी केबिन में बैठकर आंकड़े बना देते हैं। बताया जाता है कि गांव में 26 रुपए रोज और शहर में 32 रुपए रोज कमानेवाला व्यक्ति गरीबी रेखा पार कर चुका है। अब वह गरीब नहीं रह गया।’
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हमने कहा, ‘पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती। हर इंसान पैसेवाला नहीं बन सकता। हम शीघ्र ही दुनिया की चौथे नंबर की इकोनामी बनने का लक्ष्य रखते हैं। जन का तो पता नहीं, तंत्र अवश्य मालामाल हो जाएगा।’
लेख- चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा