एकनाथ शिंदे (डिजाइन फोटो)
क्या ऐसा माना जाए कि विधानसभा चुनाव को देखते हुए महाराष्ट्र की महायुति सरकार ने 4 बैठकों में जो 150 फैसले लिए हैं वे वित्त विभाग की मंजूरी नहीं मिलने की वजह से लागू नहीं हो पाएंगे? क्या मंत्रिमंडल में समन्वय का अभाव है? फैसले लेते समय वित्त विभाग को विश्वास में क्यों नहीं लिया गया? जब वित्त विभाग धनराशि ही जारी नहीं करेगा तो अधिकांश फैसले हवा-हवाई बनकर रह जाएंगे। ऐसा करना जनभावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या है?
बताया जाता है कि मंत्रिमंडल की बैठकों में वित्तमंत्री अजीत पवार ने सरकार को आगाह किया कि वित्त प्रबंध किए बगैर घोषणाएं नहीं की जानी चाहिए। वित्त विभाग ने नकारात्मक टिप्पणी करते हुए कहा कि ऐसे फैसलों से सरकार पर आर्थिक बोझ पड़ रहा है। कुछ फैसलों पर तो टिप्पणी अनुभाग का हिस्सा खाली रखा गया।
वित्त विभाग की राय खिलाफ होने के बावजूद मंत्रिमंडल ने अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए राय को नजरअंदाज करते हुए यह लोकलुभावन फैसले लिए। सोशल इंजीनियरिंग को नाम पर 17 जातियों के लिए अलग-अलग महामंडल भी बना दिए। यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता। आचार संहिता की घोषणा से पहले राज्य कैबिनेट की एक और बैठक होगी और इसमें कई अहम फैसले लिए जाने की संभावना है।
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वैसे राज्य की महायुति सरकार ने नई योजनाओं को लागू करने और परिचालन खर्च को पूरा करने के लिए रिजर्व बैंक से 125 करोड़ रुपए का कर्ज मांगा है। जानकार यह भी मान रहे हैं कि ऐसा ही चलता रहा तो आगामी महीनों में सरकारी कर्मचारियों का वेतन भुगतान प्रभावित हो सकता है।
वस्तुस्थिति ऐसी है कि बजट में कई लोकप्रिय योजनाएं घोषित की गई थीं। इसके अलावा 23 सितंबर को 24 फैसले, 30 सितंबर को 40 फैसले, 4 अक्टूबर को 34 फैसले और 10 अक्टूबर को एकसाथ 51 फैसले लिए गए। इसमें वित्त विभाग के विरोध की कोई परवाह नहीं की गई। महाराष्ट्र की हालत यह है कि उस पर कर्ज का बोझ बढ़कर 7,82,991 करोड़ रुपए हो गया। हर साल कर्ज पर 56,727 करोड़ रुपए का भुगतान करना पड़ता है।
10 वर्ष पहले 2014 में महाराष्ट्र पर कर्ज का बोझ केवल 2,94,000 करोड़ रुपए था। रिजर्व बैंक ने राज्य को 1 लाख करोड़ के नए कर्ज को मंजूरी दी है। खर्च पूरा करने के लिए आय के स्रोत सीमित हैं। जुलाई मे पेश राज्य सरकार का बजट 20,000 करोड़ रुपए के राजस्व घाटे का था।
अधिकतम कर्ज लेने से ब्याज का भुगतान करने से विकास के लिए बहुत कम पैसा बचता है। इससे नए कर्ज लेने या ऋण प्रतिभूतियां जुटाने की राज्य की वित्तीय स्थिति कम हो जाती है। इस तरह कोई आर्थिक अनुशासन नहीं है लेकिन फिर भी चुनाव सामने देखकर कितने ही लुभावने फैसले किए गए।
लेख- चंद्रमोहन द्विवेदी द्वारा