ममता की हैरान करने वाली हरकतें (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: मुर्शिदाबाद में दंगों के बाद शांति कायम करने की जगह इमामों की बैठक बुलाना, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की महज भाजपा के खिलाफ नफरतभरी प्रतिक्रिया नहीं थी, यह एक तरह से बहुसंख्यक हिंदुओं के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसी बात थी। कोई कैसे यह स्वीकार कर सकता है कि जब अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय इस कदर डरा हो कि घरों से भागकर स्कूलों और अस्पतालों में शरण लिए हुए हो, उस समय ममता बनर्जी शांति कायम करने के लिए उनके बीच जाने की बजाय इमामों के साथ विचार-विमर्श करें?
उनके एक मंत्री ने कह दिया कि पलायन कोई प्रदेश से बाहर थोड़े हुआ है। आखिरकार मुर्शिदाबाद के कुछ गांवों से लोग बंगाल में ही तो दूसरी जगह गए हैं।
ममता बनर्जी मुस्लिम वोट बैंक को साधने के लिए कानून और व्यवस्था से जोखिम का खिलवाड़ कर सकती हैं? ममता बंगाल में पिछले 14 वर्षों से मुख्यमंत्री हैं, इसके बाद भी वह दंगों के लिए केंद्र सरकार और बांग्लादेश की तरफ अंगुली उठाती हैं। अगर प्रशासन ईमानदार और संवेदशील होता, तो दंगे हर हालात में रोके जा सकते थे। दंगाइयों ने बेफ्रिक होकर चुन-चुनकर अल्पसंख्यक हिंदुओं के घरों को जलाया और न सिर्फ धारदार हथियार से की गई। हत्याओं को फिल्माया गया, बल्कि उसे बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया पर भी वायरल किया गया।
जब मीडिया के लोगों ने राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा विजया रहाटकर से पीड़ित महिलाओं से मिलने के बाद उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो वह बोलीं कि ‘मैंने मुर्शिदाबाद में पीड़ित महिलाओं की जो स्थिति देखी है, वह परेशान करने वाली है। मेरे लिए उनकी प्रतिक्रिया को शब्द देना मुश्किल है, मैंने अपने जीवन में इतना दर्द पहले कभी नहीं देखा। ममता बनर्जी पूरी कोशिश कर रही हैं कि दंगे की साजिश का आरोप भाजपा या केंद्र सरकार पर मढ़ दिया जाए। जब उनका दावा कुछ कमजोर लगने लगा, तो उन्होंने बांग्लादेशी कट्टरपंथी संगठनों और बीएसएफ की तरफ अंगुली उठाने की कोशिश की। उन्होंने खुद मौके पर जाकर शांति कायम करने की कोशिश नहीं की। बार-बार सिर्फ यही कहती रहीं कि मैं और मेरा राज्य वक्फ कानून को नहीं मानता।
यह कैसी दलील है? जब कोई कानून संसद में पास होता है और राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर कर देते हैं, तो किसी राज्य को न चाहते हुए भी उसे मानना पड़ता है। वास्तव में मुर्शिदाबाद जो कुछ हुआ, वह एक समुदाय द्वारा पूरी तैयारी के साथ दूसरे समुदाय के जनसंहार की कोशिश थी। अगर ऐसा स्वाभाविक दंगा होता, तो दोनों तरफ से दंगे की कोशिशें होतीं. ऐसा नहीं हो सकता कि एक ही समुदाय की सौ फीसदी दुकानें जलाई जाएं, एक ही समुदाय को सौ फीसदी घरों से भगाने और पलायन करने के लिए मजबूर किया जाए।
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अगर देश के दूसरे हिस्सों की तरह वक्फ कानून बनने के बाद पश्चिम बंगाल की पुलिस और प्रशासन मुस्तैद होते, तो जैसे देश के दूसरे हिस्से में दंगे नहीं हुए, वैसे ही बंगाल में भी दंगा नहीं होता। अगर ममता बनर्जी यह कहती हैं कि उनकी सरकार को ऐसी किसी साजिश की आशंका नहीं थी, तो फिर उनका खुफिया विभाग क्या कर रहा था? 1992 में बाबरी मस्जिद मुद्दे पर पूरे देश में तनाव था और 6 दिसंबर के बाद पूरे देश को हाई अलर्ट पर रखा गया था, तब भी कोलकाता के हावडा इलाके में बेहद तनावपूर्ण स्थितियां थीं, लेकिन तत्कालीन वामपंथी सरकार ने ऐसे मौके पर राजनीति नहीं की, बल्कि हर हालात में कानून और व्यवस्था को बनाए रखने की कोशिश की।नतीजतन दंगे होने से बच गए थे. लेकिन ममता बनर्जी एक साल बाद होने जा रहे विधानसभा चुनावों में भला मुस्लिम मतदाताओं को नाराज करने की जहमत कैसे उठा सकती थीं ?
लेख- वीना गौतम के द्वारा