आदिवासी परिवार का शिवचरण कैसे बना ‘दिशोम गुरु’, फोटो: सोशल मीडिया
Shibu Soren Life Story: शिबू सोरेन राज्य के निर्माण, आदिवासी हकों की लड़ाई और जनजातीय अस्मिता के संघर्ष का प्रमुख चेहरा रहे। उन्होंने सामाजिक सुधारों से लेकर राजनीतिक बदलाव तक अपनी गहरी छाप छोड़ी। अब उनकी मौत पर आदिवासी समाज में एक गहरा शोक फैल गया है।
शिबू सोरेन का शुरुआती जीवन कठिनाई भरा रहा। 1944 को गोला प्रखंड के नेमरा में सोबरन सोरेन के घर जन्मे शिबू को बचपन में शिवलाल कहकर बुलाया जाता था। फिर उनकी शिक्षा शिवचरण मांझी के नाम से शुरू हुई। लेकिन किसे पता था कि ये शिवचरण आगे जाकर लाखों लोगों का दिशोम गुरु बन जाएगा।
शिबू सोरेन का बचपन शिवलाल और शिवचरण मांझी नामों के साथ गुजरते हुए युवावस्था तक ‘शिबू’ तक पहुंच गया। दोस्तों के द्वारा दिए गए नाम को उन्होंने बड़े प्यार से अपनाया। इसके बाद ‘सोरेन’ उपनाम ने उनकी जनजातीय पहचान को सशक्त करने का काम किया। इस तरह से अपने युवावस्था में शिवचरण शिबू सोरेन कहलाए।
साल 1957 में महज 13 साल की उम्र में उन्होंने अपने पिता सोबरन सोरेन को खो दिया। उनकी हत्या महाजनों द्वारा कर दी गई थी। इस घटना ने उनके भीतर अन्याय के खिलाफ विद्रोह की भावना जगाई। इसके बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और शोषण के खिलाफ लड़ाई का संकल्प ले लिया। उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक नेता लालकेदार नाथ सिन्हा के पास चले आए और महाजनों के खिलाफ आवाज उठाने का निर्णय लिया।
1960 के दशक में शिबू सोरेन ने महाजनों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। आदिवासियों को अपनी फसल का बड़ा हिस्सा महाजनों को देना पड़ता था। इसके खिलाफ शिबू ने लोगों को इकट्ठा करना शुरू किया। गांव-गांव घूमते हुए उन्होंने आदिवासियों को जागरूक करना शुरू किया। धीरे-धीरे शिबू सोरेन की एक आवाज पर हजारों आदिवासी समाज के लोग तीर-धनुष के साथ जुट जाया करते थे और एक इशारे पर महाजनों द्वारा हड़पी गई खेतों में लगी फसल काट लेते थे।
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इस आंदोलन में शिबू इतना प्रसिद्ध हुए कि लोग उनको प्यार-सम्मान से गुरुजी कहकर बुलाने लगे। गुरुजी को संथाल की धरती पर राजनीतिक पहचान मिली और यहीं से उनको ‘दिशोम गुरु’ यानी देश का गुरु कहा जाने लगा।