आठवें प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह, फोटो- सोशल मीडिया
VP Singh Death Anniversary: भारत के आठवें प्रधानमंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह की आज पुण्यतिथि है। वह इलाहाबाद के पास मांडा के ‘राजा बहादुर राम गोपाल सिंह’ के पुत्र थे। लोग उन्हें प्यार से ‘राजा साहब’ कहकर पुकारते थे।
वी. पी. सिंह का जन्म 25 जून 1931 को इलाहाबाद में हुआ था और उन्होंने इलाहाबाद और पूना विश्वविद्यालय से शिक्षा ली थी। उन्होंने 1957 में भूदान आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और इलाहाबाद जिले के पासना गांव का खेत दान में दिया था। वह अपने मूल्यों पर जीने वाले शालीन स्वभाव के व्यक्ति थे।
उनके राजनीतिक जीवन में अहम मोड़ तब आया जब उन्होंने बोफोर्स तोप घोटाले को उठाया। इस कदम के बाद उन्होंने राजीव गांधी की सरकार से इस्तीफा दे दिया, एक नई पार्टी बनाई, और देखते ही देखते वह देशभर में लोकप्रिय हो गए। 1987 में भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुई उनकी मुहिम ने देश का मिजाज ही बदल दिया। अस्सी के दशक के अंतिम वर्षों में हिंदी भाषी क्षेत्रों में एक नारा हर जुबान पर गूंजता था: “राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है”। यह नारा उनकी नई राजनीतिक ताकत का प्रतीक बन गया। वह भारतीय राजनीति के पटल पर एक “क्लीन मैन” और नए मसीहा की छवि के साथ अवतरित हुए।
दिलचस्प बात यह थी कि 1987 से 1990 तक वह धूमकेतु की तरह छाए रहे। उनके पास न कोई संगठन था और न ही किसी विचारधारा का आलम्बन। उनके पास केवल साफ-सुथरे और ईमानदार राजनेता की छवि थी। इसी भरोसे उन्होंने राजीव गांधी की शक्तिशाली कांग्रेस को चुनौती दी, और वामपंथ और दक्षिणपंथ दोनों को अपने साथ लाने में सफल रहे। 1989 के चुनाव में उन्होंने राजीव गांधी को शिकस्त दी और देश के आठवें प्रधानमंत्री बने।
प्रधानमंत्री के रूप में, वी. पी. सिंह का कार्यकाल केवल 11 महीने का रहा, लेकिन इसमें उन्होंने एक ऐतिहासिक फैसला लिया। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करना उनके करियर का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय था। उन्होंने यह कदम चौधरी देवीलाल की चुनौती से निपटने के लिए उठाया था, साथ ही उन्हें आरक्षण की जरूरत का भी एहसास था। इस निर्णय से सरकारी नौकरियों में ओबीसी वर्ग के लिए आरक्षण की राह खुल गई, और उन्होंने सामाजिक न्याय को एक नया आयाम दिया।
हालांकि, इस फैसले ने उन्हें कांग्रेस के साथ ही बीजेपी के सवर्ण नेताओं से बुरी तरह नाराज कर दिया। देशभर में इस निर्णय के विरोध में बड़े आंदोलन हुए। विरोधी आरोप लगाते थे कि उन्होंने यह सिफारिशें राजनीतिक फायदे के लिए लागू की थीं। इस एक फैसले से वीपी सिंह की छवि खलनायक की बन गई। एक वक्त का मसीहा, समाज के कुछ वर्गों को शैतानी शक्ल में दिखने लगा। उनकी स्वीकार्यता का दायरा संकीर्ण हो गया था।
वी. पी. सिंह सामाजिक न्याय के प्रबल पक्षधर थे। संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर की तरह ही, वह सामाजिक न्याय के लिए सकारात्मक कदम उठाए जाने के पैरोकार थे। उनके कार्यकाल में डॉ. अंबेडकर को भारत रत्न से सम्मानित किया गया और संसद के सेंट्रल हॉल में उनकी तस्वीर भी लगाई गई थी।
हालांकि, प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी राजनीति अजीब भटकाव के दौर में आ गई। संगठनात्मक ढांचे की कमी, भितरघात और बीजेपी के फैलाव ने उनके लिए मुसीबतें खड़ी कर दीं। वी. पी. सिंह देश की भावनात्मक राजनीति के शिकार हुए। सत्ता से हटने के बाद उन्होंने राजनीति से दूरी बनाए रखी, लेकिन सामाजिक न्याय की अपनी प्रतिबद्धता में कभी कमी नहीं दिखाई। जीवन के अंतिम दौर में उन्होंने एक बार यह तकलीफ प्रकट की थी कि यह सकारात्मक आंदोलन उन लोगों (जैसे लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती) के पास कैसे चला गया। उन्होंने कहा, “इसीलिए तो आज यह हालत है।”
यह भी पढ़ें: ‘मुझ जैसे व्यक्ति को पीएम बना दिया… ये संविधान की ताकत है’, संविधान दिवस पर PM मोदी ने लिखी चिट्ठी
अपने अंतर्विरोधों वाले राजनीतिक जीवन के बावजूद, वी. पी. सिंह को उन नेताओं में प्रमुखता से रखा जाता है जिन्होंने सिद्धांतों की राजनीति की। लंबी बीमारी के बाद आज ही के दिन दिल्ली में उनका निधन हो गया था। उनका प्रसिद्ध नारा भले ही राजनीतिक अवसान के समय बदलकर ‘राजा नहीं रंक है, देश का कलंक है’ बन गया था, लेकिन मंडल आयोग की विरासत आज भी भारतीय राजनीति को परिभाषित करती है।