संदर्भ चित्र (डिजाइन)
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा अनुच्छेद 143(1) के तहत एक संदर्भ में, सर्वोच्च न्यायालय से पूछा गया था कि क्या कोई संवैधानिक न्यायालय राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने हेतु कोई समय सीमा निर्धारित कर सकता है? इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने एक संविधान पीठ का गठन किया था।
इस संविधान पीठ में सीजेआई न्यायमूर्ति बीआर गवई के अलावा न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति एएस चंदुरकर को शामिल किया गया था। इस पीठ ने 19 अगस्त को इस संदर्भ पर सुनवाई शुरू की थी। देश के शीर्ष विधि अधिकारी, अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी की दलीलें पूरी होने के बाद पीठ ने मामले पर फैसला सुरक्षित रख लिया है।
माना जा रहा है कि अब फैसला दो महीने के भीतर आ सकता है क्योंकि इस संविधान पीठ के प्रमुख वर्तमान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बीआर गवई 23 नवंबर को रिटयार हो रहे हैं। गुरुवार को मुख्य न्यायाधीश गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने राष्ट्रपति के संदर्भ पर सुनवाई पूरी की और पूछा कि क्या राज्यपालों द्वारा अपने कर्तव्य का पालन न करने पर न्यायालय को चुपचाप और निष्क्रिय बैठे रहना चाहिए?
रिपोर्ट के मुताबिक, अंतिम सुनवाई के दौरान, मुख्य न्यायाधीश गवई ने टिप्पणी में कहा कि मैं सार्वजनिक रूप से कहता रहा हूं कि मैं शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत में दृढ़ विश्वास रखता हूं और यद्यपि न्यायिक सक्रियता होनी चाहिए, इसे न्यायिक (दुस्साहस) में नहीं बदला जाना चाहिए। लेकिन यदि लोकतंत्र का एक पक्ष अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहता है, तो क्या न्यायालय (जो संविधान का संरक्षक है) चुपचाप और निष्क्रिय, शक्तिहीन बैठा रहेगा?”
इसके जवाब में, केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि कार्यपालिका और विधायिका भी संविधान के संरक्षक हैं। मेहता ने आगे कहा कि एक समन्वयकारी संवैधानिक पदाधिकारी (इस मामले में, राज्यपाल) के विधायी विवेकाधीन कार्य के संबंध में परमादेश जारी करना शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन होगा।
आपको बता दें कि इसी साल मई में, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय से जानना चाहा था कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करते समय राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधीन कार्य करने के लिए न्यायिक आदेशों द्वारा कोई समय सीमा निर्धारित की जा सकती है।
राष्ट्रपति का यह संदर्भ तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित विधेयकों से निपटने में राज्यपाल की शक्तियों पर सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल के फैसले के बाद आया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने अप्रैल के फैसले में कहा था कि राज्यपालों को एक उचित समय सीमा के भीतर कार्य करना चाहिए और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को रोकने के लिए संवैधानिक चुप्पी का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
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इस फैसले पर विवाद हुआ था। इसके बाद, पांच पृष्ठों के संदर्भ में, राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से 14 प्रश्न पूछे और राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों से निपटने में अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों पर उसकी राय मांगी।