'निराला' के नाम पर जारी भारतीय डाक टिकट (सोर्स- सोशल मीडिया)
Suryakant Tripathi Nirala: तमाम नामचीन लेखकों ने हिंदी साहित्य की पौध को सींचते हुए उसे ‘सदाबहार’ वृक्ष के तौर पर विकसित किया। इन साहित्यकारों में एक नाम सबसे ‘निराला’ है। उसने न केवल हिंदी को साहित्य को समृद्ध किया बल्कि कविताओं को बंधनमुक्त करते हुए उन्हें आजादी भी दी।
अब तक आप यह समझ गए होंगे कि हम किस कवि की बात कर रहे हैं। क्योंकि हमें यह भी ज्ञात है कि आप भी हिंदी साहित्य में रुचि रखते हैं। रुचि न होती तो आप यह स्टोरी नहीं पढ़ रहे होते। इसके बावजूद भी हम यह सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का नाम इस लिए जाहिर कर रहे हैं। जिससे उस महान कवि का नाम जुबां पर आकर हृदय तृप्त कर दे।
हिंदी पट्टी में जन्मे और हिंदी मातृभाषा बोलने वाले और हिंदी साहित्य पढ़कर पले-बढ़े लोगों के जीवन में सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” का उच्च स्थान रखता है। ‘निराला’ एक प्रसिद्ध हिंदी कवि, लेखक और निबंधकार थे जिन्होंने अपनी अनगिनत रचनाओं से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।
21 फरवरी 1896 को पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर में जन्मे ‘निराला’ की मातृभाषा बांग्ला थी। 20 वर्ष की आयु में उन्होंने हिंदी सीखनी शुरू की और बाद में इसे अपनी लेखनी का माध्यम बनाया। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने न केवल हिंदी में निपुणता प्राप्त की, बल्कि हिंदी साहित्य की नव-रोमांटिक धारा का भी बीड़ा उठाया।
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ (सोर्स- सोशल मीडिया)
‘निराला’ ने तीन वर्ष की आयु में अपनी मां और बीस वर्ष की आयु में अपने पिता को खो देने का दुःख झेला। जैसे-जैसे वे बड़े हुए उन पर न केवल अपने बच्चों का, बल्कि एक संयुक्त परिवार का भी बोझ बढ़ गया। निराला ने बचपन से ही नौकरी न होने के कष्टों और उससे जुड़े सम्मान और अपमान का अनुभव किया।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद एक फ्लू महामारी में उन्होंने अपनी पत्नी मनोहरा देवी सहित अपने आधे परिवार को खो दिया। निराला जीवन भर इसी दुःख में रहे। उनकी आर्थिक तंगी ऐसी थी कि उनका जीवन कल की चिंता के बिना नहीं बीता। प्रकृति और संस्कृति दोनों के अभिशापों को सहते हुए निराला ने अपना शेष जीवन साहित्यिक गतिविधियों को समर्पित कर दिया।
इन अभिशापों का दंश झेलने के बाद ही ‘निराला’ ने ये पंक्तियां लिखीं- “दुख ही जीवन की कथा रही…क्या कहूं आज जो नहीं कही” यह सिर्फ उनकी कविता की पंक्तियां नहीं, बल्कि वह यथार्थ था जिसने उनसे दीर्घायु होने का सौभाग्य छीन लिया था।
जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा और सुमित्रानंदन पंत के साथ निराला छायावाद युग के चार स्तंभों में से एक थे। निराला एक छायावादी कवि थे लेकिन रूसी रोमांटिक कवि अलेक्जेंडर पुश्किन की तरह वे एक क्रांतिकारी यथार्थवादी भी थे। गरीबी में जन्मा कवि यथार्थवादी अवश्य होता है। उनकी कलम ने सामाजिक अन्याय और शोषण के विरुद्ध प्रभावशाली लेखन किया।
उनकी कविता “वो तोड़ती पत्थर” एक छोटी बच्ची के जीवन का यथार्थवादी चित्रण है जो अपनी आजीविका के लिए पत्थर तोड़ने का काम करती है। उन्होंने “जूही की कली” और “बंधु” जैसे गीत भी लिखे, जो करुणा और वीरता से भरपूर हैं। अपनी कविताओं में वेदना भरने की क्षमता के साथ-साथ, निराला एक अद्वितीय व्यक्तित्व के भी धनी थे।
वह तोड़ती पत्थर कविता के लिए ग्राफिक (सोर्स- सोशल मीडिया)
निराला की “सरोज स्मृति”, “राम की शक्ति पूजा” और “वर दे वीणा वादिनि वर दे” उनकी विरासत में एक नया आयाम जोड़ती हैं। वहीं, एक कवि के रूप में निराला का सबसे बड़ा योगदान कविता को रिक्त छंद से मुक्त करना था। जिसके लिए उन्हें तमाम लेखकों की आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा था।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ उनके वैचारिक मतभेद जगजाहिर हैं। वे नेहरू के पश्चिमी पालन-पोषण के घोर आलोचक थे। निराला, जिनके लिए आम आदमी जीवन की हर चीज़ का निर्विवाद केंद्र था, नेहरू एक बाहरी व्यक्ति थे। निराला के स्वाभिमान का एक और वाकया प्रसिद्ध है।
1936 में एक साहित्य उत्सव में जब गांधीजी ने पूछा, “हिंदी का टैगोर कहां है?” निराला ने गांधीजी से पूछा कि क्या उन्होंने पर्याप्त हिंदी साहित्य पढ़ा है। गांधीजी ने स्वीकार किया कि उन्होंने हिंदी साहित्य का अधिक अध्ययन नहीं किया है।
जिसके बाद निराला ने उत्तर दिया, “आपको मेरी मातृभाषा, हिंदी के बारे में बात करने का अधिकार कौन देता है?” निराला ने आगे कहा, “मैं आपको अपनी और रवींद्रनाथ टैगोर की कुछ अनूदित रचनाएं भेजूंगा ताकि आप हिंदी साहित्य को बेहतर ढंग से समझ सकें।”
साहित्यिक दौलत और शोहरत से समृद्ध ‘निराला’ ने अपने आखिरी दिनों में घोर आर्थिक तंगी का सामना किया। 15 अक्टूबर 1961 को हिंदी साहित्य का यह ‘सूर्य’ भौतिक रूप से अस्त हो गया। लेकिन उसकी कृतियों की किरणें युगों-युगों तक संसार को प्रकाशित करती रहेंगी।