मंडल-मंदिर से होकर 'MY' तक कैसे पहुंचे लालू (कॉन्सेप्ट फोटो)
Bihar Politics: बिहार में चुनावी बिगुल बज चुका है। सियासी दल समरनीतियों और महारथियों को तैयार करने में जुट गए हैं। वहीं, राजनीतिक विश्लेषक चुनावी समीकरणों को समझने में जुटे हैं। इस बीच, ‘MY’ फार्मूला यानी मुस्लिम-यादव समीकरण एक बार फिर चर्चा का केंद्र बन गया है। लालू यादव को इसका जनक माना जाता है।
यह फार्मूला राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने तैयार किया था और इसी फार्मूले के दम पर वे 15 साल तक बिहार की सत्ता पर काबिज़ रहे। मुलायम सिंह यादव ने भी इसे अपनाकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। इसी के दम पर लालू और उनका परिवार लगभग तीन दशकों से बिहार की राजनीति में सबसे प्रभावशाली बना हुआ है।
MY फार्मूला उनकी पार्टी का एक मजबूत आधार बना हुआ है। वर्तमान में, लालू और राबड़ी के छोटे बेटे तेजस्वी यादव राजद का नेतृत्व कर रहे हैं। लालू द्वारा तैयार किया गया यह ‘MY’ फार्मूला इतना मज़बूत है कि इसे तोड़ने की कई राजनीतिक कोशिशें की गईं, लेकिन यह लगभग अपरिवर्तित रहा है।
एक दौर ऐसा भी था जब देश की सियासत मंडल आयोग और मंदिर के इर्द-गिर्द घूमती थी। 1990 में दो बड़ी राजनीतिक घटनाओं ने पूरे राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया। पहली समाजवादी नेता वी.पी. सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया और पिछड़े समुदायों के लिए आरक्षण की शुरुआत की।
दूसरी भाजपा के संस्थापक सदस्य लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की मांग को लेकर देशव्यापी रथ यात्रा निकाली। मंडल आंदोलन ने जाति को राजनीति का केंद्र बिंदु बना दिया, जबकि मंदिर आंदोलन ने भाजपा को दो सांसदों वाली एक छोटी सी पार्टी से दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनाने का मार्ग प्रशस्त किया।
1990 में वी.पी. सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया और केंद्र सरकार तथा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत नौकरियां आरक्षित कीं। इस फैसले का ऊंची जातियों के व्यापक विरोध का सामना करना पड़ा और कई युवाओं ने आत्मदाह का सहारा लिया।
मंडल कमीशन के विरोध में प्रदर्शन (सोर्स- सोशल मीडिया)
लालू यादव ने इन घटनाओं का भरपूर फायदा उठाया। उस समय बिहार में पिछड़े मतदाता 52 प्रतिशत थे। आरक्षण ने सवर्णों को पिछड़ों के खिलाफ खड़ा कर दिया, जबकि लालू ने खुद को जातिगत वर्चस्व के खिलाफ एक योद्धा के रूप में पेश किया। वे बिहार के मुख्यमंत्री भी थे। मंडल युग ने बिहार की राजनीति को जाति-केंद्रित बना दिया था, जिससे विकास और शासन जैसे मुद्दे दब गए थे।
इसके बाद लालू के हाथ दूसरा मुद्दा भी लग गया। दिवंगत पत्रकार संकर्षण ठाकुर ने अपनी पुस्तक “द ब्रदर्स बिहारी” में लिखा है कि आडवाणी की रथ यात्रा वीपी सिंह सरकार के लिए एक खुली चुनौती थी। भाजपा संयुक्त मोर्चे की सहयोगी थी और 1989 के चुनावों में उसने 85 सीटें जीती थीं, इसलिए सरकार का अस्तित्व भाजपा के समर्थन पर निर्भर था। प्रधानमंत्री के हाथ बंधे हुए थे, वे यात्रा को रोक नहीं सकते थे।
ठाकुर के अनुसार, उन्होंने लालू से आडवाणी की रथ यात्रा रोकने के लिए कहा। लालू तुरंत मान गए। 23 अक्टूबर, 1990 को आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया गया और मसानजोर के सरकारी गेस्ट हाउस भेज दिया गया। उसी दिन लालू यादव ने पटना के गांधी मैदान में एक ऐतिहासिक रैली को संबोधित किया। उन्होंने कहा, “अगर लोग मर जाएंगे, तो मंदिर की घंटियां कौन बजाएगा? मस्जिद में नमाज़ कौन पढ़ेगा? मैं अपने बिहार में सांप्रदायिक हिंसा नहीं फैलने दूंगा। चाहे मैं सत्ता में रहूं या गंवा दूं, मैं इस पर कोई समझौता नहीं करूंगा।”
संदर्भ चित्र- लालू ने रोका आडवाणी का रथ (सोर्स- सोशल मीडिया)
ठाकुर आगे लिखते हैं कि रातोंरात लालू राष्ट्रीय सुर्खियों में छा गए। वे आडवाणी को रोकने वाले व्यक्ति बन गए। उन्होंने वो कर दिखाया जो उस दौर में ज्यादातर सरकारें करने से हिचकिचाती थीं। वे मुसलमानों वामपंथियों और उदार बुद्धिजीवियों के चहेते बन गए। दलितों और अल्पसंख्यकों से उन्हें सराहना मिलने लगी।
इसके बाद लालू ने ‘MY’ फार्मूला निकाला। जिसकी पहली परीक्षा 1991 के लोकसभा चुनाव में हुई, जहां उन्हें जबरदस्त सफलता मिली। जनता दल ने बिहार में 40 में से 32 सीटें जीतीं, जबकि राज्य के बाहर पार्टी हार गई। उस समय, पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों का कुल मिलाकर 52 प्रतिशत मतदाता थे, जबकि मुसलमानों का 12 प्रतिशत।
कांग्रेस सवर्णों, मुसलमानों, हरिजनों और अति पिछड़ी जातियों पर निर्भर थी। मंडल-मंदिर समीकरण ने समीकरण बदल दिया। लालू पिछड़ों और मुसलमानों के मसीहा बन गए। उन्होंने मुस्लिम वोटों को पूरी तरह से अपने पक्ष में कर लिया। राजीव गांधी सरकार द्वारा राम मंदिर के शिलान्यास के फैसले से मुसलमान कांग्रेस से नाराज़ हो गए और लालू की ओर मुड़ गए।
पिछड़े वोट बैंक के साथ, लालू अजेय हो गए। 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में, जनता दल ने 167 सीटें जीतकर ‘MY’ फॉर्मूले को सही साबित किया। तब से, कांग्रेस मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए संघर्ष कर रही है। लालू ने जनता दल को तोड़कर राजद का गठन किया, जिस पर आज भी मुसलमानों का भरोसा कायम है।
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2020 के विधानसभा चुनाव में, राजद सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन कांग्रेस के खराब प्रदर्शन ने महागठबंधन को सत्ता से बाहर कर दिया। बिहार के सीमांचल क्षेत्र में, हैदराबाद से आई असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM ने पांच सीटें जीतकर सबको चौंका दिया। इसने लालू के विकसित वोट बैंक के लिए एक चुनौती पेश की। यही वजह है कि राजद ने ओवैसी के गठबंधन प्रस्तावों से दूरी बनाए रखी है।
1990 के दशक की लालू लहर के बाद से बिहार की राजनीति बदल गई है। पिछले 20 वर्षों में एनडीए ने अति पिछड़े वोटों का एक बड़ा हिस्सा हासिल कर लिया है और मुसलमान अन्य विकल्प तलाश रहे हैं, लेकिन MY फॉर्मूला अभी भी राजद को मजबूत बनाए हुए है। क्या इस बार यह सफल होगा? यह जानने के लिए हमें 14 नवंबर तक इंतज़ार करना होगा।