मायावती (बसपा प्रमुख)
लखनऊ : बहुजन समाज पार्टी ने 2024 के लोकसभा चुनाव में अकेले लड़ने का फैसला किया है। वहीं बसपा की रणनीति देखकर राजनीतिक जानकारों के द्वारा कहा जाने लगा है कि बहुजन समाज पार्टी एक बार फिर कांग्रेस पार्टी की तरह उत्तर प्रदेश में वोटकटवा पार्टी साबित होगी, क्योंकि 2007 में अपने सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल करने वाली बहुजन समाज पार्टी 2012 में जब से सत्ता से बाहर हुई है, तब से उसका जनाधार और वोट प्रतिशत लगातार गिरता ही जा रहा है। अब हालात यह है कि पार्टी के 10 सांसदों का ना तो टिकट पक्का है और ना ही पार्टी में उनका स्थान सुनिश्चित दिखाई दे रहा है। जिससे पार्टी के सांसद अलग-अलग ठिकाने खोज रहे हैं। वहीं विधानसभा में भी बहुजन समाज पार्टी केवल एक सीट तक सीमित होकर रह गई है।
लगातार घट रहा जनाधार
आपको याद होगा कि 2007 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान बहुजन समाज पार्टी में सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले से अपने दम पर बहुमत हासिल किया था। ब्राह्मण के साथ दलित और मुस्लिम समीकरण से बहुजन समाज पार्टी पहली बार अपने दम पर सत्ता में आने वाली पार्टी बनी थी। लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने सत्ता में वापसी की तो उसके बाद से बहुजन समाज पार्टी का जनाधार लगातार गिरता गया। 2014 में हुए लोकसभा के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने 4.2% वोट जरूर हासिल किया, लेकिन लोकसभा में एक भी सीट हासिल नहीं कर पायी।
उसके बाद बसपा ने राजनीतिक प्रयोग शुरू किए 2019 के चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा। इससे बहुजन समाज पार्टी को बहुत अधिक फायदा हुआ और उसने लोकसभा में 10 सीटों जीतीं, जबकि समाजवादी पार्टी को कोई खास फायदा नहीं हुआ और वह केवल 5 सीटों पर सिमट गई। इतना ही नहीं पार्टी के मुखिया की पत्नी डिंपल यादव कन्नौज से भी अपनी लोकसभा सीट हार गयीं। हालांकि बाद में डिंपल यादव को मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद खाली हुई सीट से लोकसभा में भेजा गया।
वहीं 2022 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया था, जिससे पार्टी को करारा झटका लगा था और पार्टी केवल एक सीट तक सिमट कर रह गई थी। बलिया जिले की रसड़ा सीट से पार्टी प्रत्याशी उमाशंकर सिंह ही चुनाव जीत कर अकेले विधानसभा में जाने में सफल रहे।
बहुजन समाज पार्टी के लगातार घटते जा रहे वोट से यही संकेत मिल रहा है कि बसपा धीरे-धीरे जमीनी पकड़ खोती जा रही है। अगर पार्टी को चुनावों में अपनी शाख मजबूत करनी चाह रही है तो उसे अपनी चुनावी रणनीति बदलनी होगी।
2017 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के पास 22% वोट शेयर था, लेकिन 5 साल बाद 2022 के चुनाव में यह केवल 13 फ़ीसदी रह गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी का वोट से को 6 फीसदी से ज्यादा का नुकसान हुआ था। लेकिन बहुजन समाज पार्टी के 10 सांसद सदन में पहुंचे थे।
हासिये पर हैं सभी सांसद
अब यह खबर सामने आ रही है कि बहुजन समाज पार्टी के 10 सांसदों का टिकट पक्का नहीं है। न ही उनको बहुजन समाज पार्टी की तरफ से कुछ बताया जा रहा है और ना ही वह खुद मायावती तक अपनी पहुंच बनाने में सफल हो पा रहे हैं। ऐसे में उनके भविष्य को लेकर तरह-तरह के प्रयास लगाए जा रहे हैं। एक सांसद ने तो यह भी कह दिया कि उनको पिछले कुछ दिनों से बहुजन समाज पार्टी की बैठकों में भी नहीं बुलाया जा रहा है। ऐसे में वह क्या करें उनको कुछ समझ में नहीं आ रहा है।
ये है सांसदों का हाल
आपने देखा होगा कि गाजीपुर के सांसद अफजाल अंसारी समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार बन चुके हैं और सपा ने उनको गाजीपुर से अपना उम्मीदवार घोषित भी कर दिया है। इसके अलावा अमरोहा से सांसद दानिश अली भी पार्टी से निकाले जाने के बाद कांग्रेस पार्टी के करीबी हो गए हैं। सपा ने गठबंधन में यह सीट कांग्रेस को दे दी है, जिससे अमरोहा से उनका चुनाव लड़ना लगभग तय माना जा रहा है। इसके अलावा यह भी बात चर्चा में आई है कि दानिश अली के अलावा बहुजन समाज पार्टी के दो अन्य सांसद भी कांग्रेस पार्टी के संपर्क में हैं। इसी तरह तीन अन्य सांसद समाजवादी पार्टी से टिकट पाने का जुगाड़ लगा रहे हैं, जबकि चार सांसद भारतीय जनता पार्टी में अपनी संभावनाएं तलाश रहे हैं। उन्हीं में से एक सांसद मलूक नागर हैं, जो आरएलडी के नेता जयंत चौधरी के संपर्क में हैं, जबकि लालगंज की सांसद संगीता आजाद और अंबेडकर नगर के सांसद रितेश पांडेय भाजपा से अपनी नजदीकी बढ़ाते हुए देखे जा रहे हैं।
ऐसे में बहुजन समाज पार्टी विधानसभा चुनाव की ही तरह लोकसभा चुनाव में अकेले लड़कर क्या हासिल कर पाती है, यह देखने वाली बात होगी। राजनीतिक खबरों के विश्लेषकों का कहना है कि अगर बहुजन समाज पार्टी अपनी रणनीति नहीं बदलती है तो उत्तर प्रदेश में उसकी स्थिति कांग्रेस पार्टी की तरह हो जाएगी और वह भी एक वोटकटवा पार्टी बनाकर मैदान में दिखाई देगी, क्योंकि उसके अधिकांश उम्मीदवार जीतने की हैसियत में नहीं होंगे। बसपा केवल दलित वोट के सहारे चुनाव नहीं जीत पाएगी।