भारत का पूर्ण बजट जहां पर आज पेश होने वाला है वहीं पर बजट को लेकर आम जनता से लेकर सभी वर्गों की नजर रहेगी। कहा जा रहा है यह बजट मोदी सरकार की 3.0 सरकार का विकसित भारत बजट होगा। वैसे जो बजट की व्यवस्था अभी प्रभावी हो रही है लेकिन आपको जानकारी में बताए कि, बजट का जिक्र महाभारत काल से लेकर प्राचीन भारतीय इतिहास में होता रहा है। फूटी कौड़ी से कौड़ी, कौड़ी से दमड़ी, दमड़ी से धेला, धेला से पाई, पाई से पैसा, पैसा से आना, आना से रुपया तो बाद में बना उससे पहले प्राचीन भारत में स्वर्ण, रजत, ताम्र और मिश्रित मुद्राएं प्रचलित थी जिसे 'पण' कहा जाता था।
प्राचीन काल में कुबेर देवता को देवताओं के कोषाध्यक्ष की उपाधि दी गई थी, उस दौरान वैदिक काल में सभा, समिति और प्रशासन व्यवस्था के ये तीन अंग थे। सभा अर्थात धर्मसंघ की धर्मसभा, शिक्षासंघ की विद्या सभा और राज्यों की राज्यसभा। कहते है कि, प्रशान में एक व्यक्ति होता था जो टैक्स के एवज में मिली वस्तु या सिक्के का हिसाब किताब रखता था। इसमें प्रधान कोषाध्यक्ष के अधिन कई वित्त विभाग या खंजांची होते थे। यह व्यवस्था रामायण और महाभारत काल तक चली।
सिंधु सभ्यता के दौरान भी बजट का जिक्र होता रहा है उस काल में वस्तु विनिमय के अलाव मुद्रा का लेन-देन भी था। उस काल में भी वित्त विभाग होता था जो राज्य से टैक्स वसुलता और बाहरी लोगों से भी चुंगी नाका वसुलता था। इस दौरान स्वर्ण, ताम्र, रजत और लौह मुद्राओं के अलावा कहते हैं कि कौड़ियों का भी प्रचलन था।
प्राचीन शास्त्र की धरोहर मनुस्मृति, शुक्रनीति, बृहस्पति संहिता और महाभारत में भी बजट का उल्लेख मिलता है। मनुस्मृति के अनुसार करों का संबंध प्रजा की आय और व्यय से होना चाहिए। महाभारत के शांतिपर्व के 58 और 59वें अध्याय में भी इस बारे में जानकारी दी गई है। इसमें ये भी कहा गया था कि राजा को हद से ज्यादा कर लगाने से बचना चाहिए।
कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में बजट व्यवस्था का उल्लेख हुआ है इस अर्थशास्त्र में मौर्य वंश के वक्त की राजकीय व्यवस्था के बारे में जानकारी मिलती है। उस काल में रखरखाव, आगामी तैयारी, हिसाब-किताब का लेखा-जोखा वर्तमान बजट की तरह पेश किया जाता था।
विक्रमादित्य और राजा हर्षवर्धन के काल तक अलग अलग क्षेत्रों में भिन्न भिन्न तरह से वित्तिय व्यवस्था संचालित होती थी। अवंतिका जनपद के महान राजा विक्रमादित्य ने नवरत्न रखने की परंपरा की शुरुआत की थी। इस परंपरा का अनुसरण कई राजाओं ने किया।