नीतीश कुमार (सोर्स- सोशल मीडिया)
Siyasat-E-Bihar: बिहार के राजनीतिक इतिहास में नीतीश कुमार को सबसे सफल मुख्यमंत्री का तमगा हासिल है। लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब नीतीश कुमार असफलताओं से घिरे हुए थे। एक तरफ लालू यादव सियासत की बुलंदियों की तरफ तेजी से बढ़ रहे थे, तो दूसरी तरफ नीतीश मटियामेट होने की कगार पर जा पहुंचे थे। नौबत तो यहां तक आ गई थी कि राजनीति से सदैव के लिए संन्यास लेने का मन बना लिया था। अपनी पत्नी को तो उन्होंने वचन भी दे दिया था।
1970 का दशक था और लालू प्रसाद यादव बिहार में अपनी राजनीतिक पकड़ बनाने लगे थे। उन्होंने सबसे पहले 1977 में लोकसभा चुनाव और फिर 1980 में सोनपुर से विधानसभा चुनाव जीता। लालू यादव ने 1985 में भी जीत हासिल की, जिससे उनकी शुरुआत शानदार रही और उनका स्ट्राइक रेट किसी को भी प्रभावित कर सकता था। दूसरी तरफ नीतीश कुमार थे, जो अपने पहले दोनों चुनाव बुरी तरह हार गए थे। सियासत-ए-बिहार की इस किस्त में कहानी नीतीश के बिद्ध होने और संजीवनी प्राप्त करने की।
बिहार के नामचीन पत्रकार रहे संकर्षण ठाकुर की किताब ‘अकेला आदमी: कहानी नीतीश कुमार की’ के मुताबिक साल 1977 में देश में जनता पार्टी की लहर चल रही थी। आपातकाल के बाद हुए चुनावों में, कांग्रेस की हालत बहुत खराब थी। मजाक में ही सही पर यह कहा जाता था कि कांग्रेस के उम्मीदवारों को कोई भी हरा सकता है। जनता पार्टी ने नीतीश कुमार को हरनौत विधानसभा क्षेत्र से अपना उम्मीदवार भी बनाया था। जिसमें कांग्रेस वह सीट हार गई, लेकिन जीत नीतीश कुमार की नहीं, बल्कि निर्दलीय उम्मीदवार भोला प्रसाद सिंह की हुई। नीतीश कुमार को जनता पार्टी के टिकट पर हार का सामना करना पड़ा।
दिलचस्प बात यह है जिन भोला प्रसाद सिंह ने नीतीश कुमार को हराया था वह उनके करीबी दोस्त थे। उनकी नजदीकी इतनी गहरी थी कि जब नीतीश कुमार ने मंजू से शादी की, तो जिस सफेद फिएट कार में वे बैठे थे, वह भोला प्रसाद की थी। सबसे खास बात यह थी कि भोला प्रसाद गाड़ी चला रहे थे। दंपति पिछली सीट पर चुपचाप बैठे रहे और प्रसाद बातें करते रहे। अपने दोस्त से पहला ही चुनाव हार जाना दुखद था। लेकिन नीतीश कुमार ने हार नहीं मानी। उन्होंने 1980 में फिर से चुनाव लड़ा और हरनौत सीट से अपनी किस्मत आजमाई।
इस बार राजनीतिक दांव-पेंच ऐसा था कि भोला प्रसाद ने खुद चुनाव नहीं लड़ा, बल्कि अपने दोस्त अरुण कुमार सिंह के लिए लड़े। उस चुनाव में अरुण कुमार सिंह ने भी जनता पार्टी (सेक्युलर) के टिकट पर नीतीश कुमार के खिलाफ निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा। नतीजे आए और नीतीश कुमार लगातार दूसरी बार हार गए। पहली बार भोला प्रसाद से और दूसरी बार अपने समर्थक अरुण कुमार से। दोनों चुनावों में एक बात समान थी: कुर्मी समुदाय नीतीश कुमार से जुड़ नहीं पा रहा था। कुर्मी समुदाय के लोग शिकायत कर रहे थे कि नीतीश कुमार उनके लिए खड़े नहीं हुए।
नीतीश कुमार जय प्रकाश नारायण के साथ (सोर्स- सोशल मीडिया)
कुर्मी-दलित राजनीतिक लड़ाई 1977 के बेलछी नरसंहार के बाद से शुरू हो गई थी। दलितों पर अत्याचार हो रहे थे, कुर्मी समुदाय के लोगों पर आरोप लग रहे थे, और अपने सिद्धांतों के कारण नीतीश ने इस मुद्दे पर कभी कोई कड़ा रुख नहीं अपनाया। उनके विरोधियों ने कुर्मियों का समर्थन करके वोट हासिल किए, और नीतीश इस स्थिति में और उलझते गए। उस समय नीतीश कुमार का गहरा मोहभंग हो गया था। उन्हें लग रहा था कि जो लोग कभी उनके साथ छात्र राजनीति में थे, वे अब अपनी जगह बना रहे हैं, और वे लगातार दो चुनाव हार चुके थे।
नीतीश कुमार ने निराशा में कहा था, “मुझे कुछ करना ही होगा, ऐसे कैसे ज़िंदगी चलेगी?” नीतीश राजनीति में अवसर नहीं तलाश रहे थे; वे राजनीति छोड़ने की बात कर रहे थे; वे दूसरी नौकरी करने की बात कर रहे थे। इसके पीछे उनके कई कारण थे। उनकी शादी मंजू से हुई थी, लेकिन आर्थिक चुनौतियां बढ़ती जा रही थीं। सात साल बीत गए लेकिन नीतीश घर पैसा नहीं ला पा रहे थे। उस समय वे बख्तियारपुर में रहते थे। हालात दिन-ब-दिन बदतर होते जा रहे थे।
नीतीश कुमार की पत्नी मंजू के लिए भी ऐसी जिंदगी आसान नहीं थी, उन्होंने कभी इसकी कल्पना भी नहीं की थी। वे एक पढ़े-लिखे परिवार से थीं, उनके पिता प्रोफेसर थे और उनकी शादी नीतीश कुमार से हुई थी, जो एक इंजीनियर थे। उन्होंने सोचा था कि शादी के बाद वे मध्यमवर्गीय लोगों की तरह रहेंगे। लेकिन नीतीश कुमार की राजनीतिक हार ने सब कुछ बदल दिया था। वे घर तो आ जाते थे, लेकिन राजनीति का बोझ उनके साथ बना रहता था। अपनी पत्नी से उनकी बातचीत काफी कम हो गई थी। बख्तियारपुर में नीतीश कुमार के एक पुराने दोस्त ने बताया, “उन दिनों पति-पत्नी झगड़ते रहते थे।” नीतीश बात नहीं करते थे बस गुस्सा करते रहते थे।
नीतीश कुमार अपनी पत्नी मंजू के साथ (सोर्स- सोशल मीडिया)
उस समय नीतीश कुमार के दोस्त नरेंद्र सिंह उनके साथ काफी समय बिताते थे। नीतीश ने उनसे कहा भी था, “कुछ करो जिंदगी ऐसे कैसे चल सकती है?” नरेंद्र सिंह ने नीतीश कुमार के हारे हुए दो चुनावों की ज़िम्मेदारी ली थी। अब नरेंद्र खुद कह रहे थे कि नीतीश को आर्थिक रूप से मजबूत होना है। उन्हें अपने बुज़ुर्ग माता-पिता और पत्नी की देखभाल करनी है। उस समय नीतीश ने राजनीति छोड़कर सिविल कॉन्ट्रैक्टर बनने पर भी विचार किया था। लेकिन उस समय उनके एक और दोस्त विजय कृष्ण आगे आ गए।
विजय कृष्ण ने नीतीश को कर्पूरी ठाकरे के संघर्षों के बारे में बताया। उन्होंने जोर देकर कहा कि उन्होंने भी जीवन भर कभी पैसा कमाया नहीं, लेकिन उन्होंने समाज सेवा करना कभी नहीं छोड़ा, अपनी जिम्मेदारियों से कभी मुंह नहीं मोड़ा। नीतीश कुमार इससे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सक्रिय राजनीति में लौटने का फैसला किया। 1985 के चुनाव का समय आ गया था। नीतीश कुमार ने फिर से हरनौत सीट से चुनाव लड़ा। इस बार उन्होंने यह भी कसम खाई थी कि अगर वह यह चुनाव हार गए तो हमेशा के लिए राजनीति छोड़ देंगे।
इस चुनाव में उनकी पत्नी मंजू देवी ने भी नीतीश कुमार को 20,000 रुपये की मदद की थी। यह पैसा इस आश्वासन पर दिया गया था कि अगर वे चुनाव हार गए तो राजनीति छोड़ देंगे। अब नीतीश कुमार के लिए बहुत कुछ दांव पर लगा था और उन्होंने कड़ी मेहनत की, यहां तक कि दिल्ली के चक्कर भी लगाए और चंद्रशेखर से नज़दीकियां भी बढ़ाईं, और नतीजा हमारे सामने था: नीतीश कुमार ने अपना पहला चुनाव हरनौत सीट से 22,000 से ज्यादा वोटों के अंतर से जीता। उसके बाद नीतीश कभी नहीं हारे, न ही किसी ने उनसे राजनीति छोड़ने की बात की।
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