सऊदी व पाक समझौता (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: ऐतिहासिक तौर पर भारत व सऊदी अरब के रिश्ते हमेशा से ही अच्छे व मधुर रहे हैं, कभी कोई समस्या या विवाद नहीं रहा है। इसलिए सऊदी अरब व पाकिस्तान के बीच जो नाटो जैसा समझौता हुआ है, उस पर भारत सरकार ने बहुत ही सावधानीभरी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। लेकिन सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि क्या दिल्ली की विदेशनीति में कहीं चूक हुई है और इस समझौते का भारतीय उप-महाद्वीप पर प्रभाव पड़ सकता है? सऊदी अरब व पाकिस्तान ने आपस में एक स्ट्रेटेजिक रक्षा समझौता किया है, जिसमें विशेषरूप से कहा गया है कि अगर एक देश पर कोई आक्रमण होगा, तो वह दोनों देशों के विरुद्ध आक्रमण समझा जायेगा।
यह समझौता मध्य पूर्व में इजराइल की आक्रामक हरकतों को मद्देनजर रखते हुए किया गया है, विशेषकर तेल अवीव के हाल के कतर पर अनावश्यक हमले की पृष्ठभूमि में। लेकिन इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि यह समझौता भारत के ऑपरेशन सिंदूर के कुछ माह बाद हुआ और वह भी उस समय जब दिल्ली का प्रयास इस्लामाबाद में ‘न्यू नार्मल’ थोपने का है, जो इस बात पर बल देता है कि सीमा पार से कोई भी आतंकी हरकत भारत की तरफ से सैन्य प्रतिक्रिया से नहीं बच सकती। ऑपरेशन सिंदूर पहलगाम आतंकी हमले की प्रतिक्रिया में था और जिस दिन पहलगाम की निंदनीय घटना हुई, उस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सऊदी अरब के दौरे पर थे व उन्हें अपनी यात्रा अधूरी छोड़कर स्वदेश लौटना पड़ा था।
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल का कहना है कि इस समझौते का हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा और क्षेत्रीय व ग्लोबल स्थिरता पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अध्ययन किया जायेगा। सवाल यह है कि जब दिल्ली को पहले से ही मालूम था कि ऐसे समझौते के लिए प्रयास किये जा रहे हैं तो उसे रुकवाने के लिए उसने क्या कोशिशें की थीं, अगर की थीं तो वह सफल क्यों नहीं हुईं? इस समझौते पर 17 सितम्बर को रियाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और सऊदी अरब के प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान ने हस्ताक्षर किये। इजराइल की आक्रमक हरकतों से खाड़ी में व्यापक डर व चिंता है। अरब देशों में तेजी से यह बात घर करती जा रही है कि अमेरिका उनके लिए भरोसेमंद सुरक्षा साथी नहीं है।
अमेरिका के अरब देशों में बड़े बड़े सैन्य अड्डे हैं, इनकी वजह से अरबी शेख यह समझे बैठे थे कि वह और उनका राजपाट सुरक्षित रहेगा, इसलिए वह गाजा नरसंहार पर भी खामोश रहे। लेकिन जब ईरान ने इराक व कतर के अमेरिकी सैन्य अड्डों पर मिसाइल से हमले किये, जब यमन के शासकों की हत्या कर दी गई, जब कतर में इजराइल ने हमला किया तो शेखों की नींद खुली और उन्हें एहसास हुआ कि ट्रम्प व अमेरिका पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए अन्य व्यवस्था करनी होगी। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत व सऊदी अरब के स्ट्रेटेजिक संबंध बहुत अधिक मजबूत हुए हैं और मोदी एक दशक में तीन बार रियाद की यात्रा कर आये हैं; वह इस साल अप्रैल में भी रियाद में थे। इसको मद्देनजर रखते हुए यह यकीन से कहा जा सकता है कि सऊदी अरब इस्लामाबाद की खातिर दिल्ली से अपने रिश्ते खराब नहीं करेगा। दिलचस्प यह है कि दिल्ली से टकराव के बाद इस्लामाबाद अपनी सॉफ्ट कूटनीति के कारण ट्रम्प की गुड बुक्स में प्रवेश करने में सफल हो गया है।
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चीन उसका हर मौसम का दोस्त है। तुर्की ने भारत के ऑपरेशन सिंदूर के दौरान उसकी मदद की। अब सऊदी अरब से उसका समझौता हो गया है। कूटनीतिक दृष्टि से पाकिस्तान अकेला नहीं पड़ा है। भारत को भी यही करना चाहिए और अपनी ताकतों पर फोकस करना चाहिए। सऊदी अरब व पाकिस्तान के बीच नया रक्षा समझौता वास्तव में रियाद के लिए तेल अवीव के विरुद्ध रक्षाकवच है।
लेख- शाहिद ए चौधरी के द्वारा