(डिजाइन फोटो)
पड़ोसी ने हमसे कहा, ‘‘निशानेबाज, चुनाव निकट देखकर सरकार उदारतापूर्वक अपना खजाना जनता के लिए खोल देती है और तरह-तरह की लोकलुभावन योजनाओं के जरिए दान-पुण्य करने लगती है।’’
हमने कहा, ‘‘भारत की संस्कृति में दान का बहुत महत्व है। यहां राजा बली और कर्ण जैसे महादानी हुए हैं। दान देनेवाले को कभी ऐसा करने से मना नहीं करना चाहिए। शुक्राचार्य ने बली को मना किया और फिर भी नहीं मानने पर संकल्प करने वाले जलपात्र की टोटी में जाकर बैठ गए ताकि पानी न निकलने पाए। ऐसे में वामन भगवान ने एक सींक डालकर शुक्राचार्य की एक आंख फोड़ दी। इस प्रसंग को लेकर दान में बाधा डालने वाले के लिए मराठी में कहावत है- झरीतील शुक्राचार्य! कर्ण ने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए अपने कवच-कुंडल इंद्र को दान कर दिए थे। दक्षिणा के रूप में अपने सोने के दांत तोड़कर दे डाले थे।’’
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पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज, इतिहास में राजा हर्षवर्धन बहुत बड़ा दानी था। वह कुंभ मेले के समय प्रयागराज में अपनी संपूर्ण संपदा दान कर देता था फिर इस बौद्ध धर्मी राजा को उसकी लाडली बहन राजश्री पहनने को चीवर (पीला वस्त्र) देती थी। यह बात अलग है कि इसके दूसरे दिन से भारी टैक्स लगाकर जनता से सारा धन वसूल कर राजकोष फिर भर लिया जाता था।’’
हमने कहा, ‘‘वर्तमान समय में भी सरकार को निर्वाचन की बेला में दान-पुण्य करने का नशा सवार हो जाता है। यह एक तरह का एक्सचेंज प्रोग्राम है। इसके बदले जनता सत्तारूढ़ गठबंधन को मतदान रूपी महादान करती है। आप इसे गिव एंड टेक या आपसी लेन-देन कह सकते हैं। यूं देखा जाए तो दान में परिपूर्णता रहनी चाहिए। लाडली बहन के साथ लाडले जीजा को भी कुछ देना चाहिए था। रामायण में कहा गया है- सुर-नर-मुनि सबकै यह रीति, स्वारथ लाग करें सब प्रीति! इसका अर्थ है कि देवता, इंसान या ऋषि-मुनि अपने मतलब के लिए प्रेम करते हैं। कितने ही लोग धनवानों या पावरफुल लोगों से अपने स्वार्थ के लिए दोस्ती करते हैं। इसीलिए कहा गया है- यार-दोस्त किसके, माल खाए खिसके!’’
लेख- चंद्रमोहन द्विवेदी द्वारा