महाराष्ट्र में कितना पुराना है यह विवाद (डिजाइन फोटो)
महाराष्ट्र में हिंदी-मराठी विवाद एक सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मुद्दा है जो समय-समय पर उभरता रहता है। यह विवाद मुख्य रूप से भाषा की पहचान, स्थानीय बनाम बाहरी और क्षेत्रीय अस्मिता से जुड़ा हुआ है। राज्य में हिंदी भाषा को लेकर एक बार फिर से विवाद शुरू हो गया है।
महाराष्ट्र सरकार के आदेश के बाद विपक्षी पार्टियां राज्य में एक बार फिर हिंदी थोपने कर आरोप लगा रही हैं। इसको लेकर दो महीने पहले हुए विवाद के बाद फडणवीस सरकार ने राज्य बोर्ड के अंतर्गत मराठी और हिंदी माध्यम के स्कूलों में कक्षा 1 से 5 तक हिंदी को अनिवार्य तीसरी भाषा बनाने के अपने फैसले को वापस ले लिया था।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के तहत महाराष्ट्र सरकार ने साल 2024 में एक NEP 2020 स्टियरिंग कमिटी का गठन किया, जिसने कक्षा 1 से तीन-भाषा फॉर्मूला लागू करने की सिफारिश की, जिसमें हिंदी तीसरी भाषा हो सकती है। इसके बाद 16 अप्रैल 2025 को शिक्षा विभाग ने एक Government Resolution (GR) जारी की जिसमें कक्षा 1 से 5 तक मराठी और अंग्रेज़ी के साथ हिंदी को अनिवार्य तीसरी भाषा बताया गया।
विपक्षी पार्टियों ने इस आदेश का विरोध किया। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, शिवसेना (यूबीटी), कांग्रेस, एनसीपी (एसपी) समेत अन्य पार्टियों ने सरकार पर हिंदी थोपने का आरोप लगाया। जिसके बाद सरकार ने अपने कदम वापिस खींच लिए। अप्रैल में जारी आदेश को पलटते हुए सरकार 17 जून ने एक नया GR जारी किया। जिसमें हिंदी के लिए लिखा गया अनिवार्य शब्द हटा दिया।
लेकिन इस आदेश के बावजूद विरोध हो रहा है। क्योंकि सरकार ने अनिवार्य शब्द तो हटा दिया लेकिन एक नई शर्त लगा दी। कि अगर किसी कक्षा में 20 से अधिक छात्र किसी अन्य भारतीय भाषा को चुनते हैं, तो स्कूल को उस भाषा के लिए शिक्षक उपलब्ध कराना होगा। अगर 20 से कम छात्र चुनते हैं, तो भाषा ऑनलाइन सिखाई जाएगी।
विपक्षी पार्टियों का आरोप है कि 20 छात्रों वाली शर्त के जरिए सरकार हिंदी को बनाए रखना चाहती है। क्याेंकि यदि इससे कम छात्र हुए तो शिक्षक नहीं मिलेगा। ऐसे में छात्र कोई अन्य भाषा कैसे चुन सकते हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 तीन-भाषा फार्मूले की बात करती है। जिसमें मातृभाषा यानी उस राज्य में सबसे ज्यादा बोलने वाली भाषा, दूसरी क्षेत्रीय/राष्ट्रीय भाषा और तीसरी अंग्रेजी शामिल है। लेकिन नीति यह भी कहती है कि राज्यों को अपने हिसाब से भाषा चुनने की स्वतंत्रता होगी।
हिंदी और मराठी के बीच की लड़ाई केवल भाषायी नहीं बल्कि यह अस्मिता की लड़ाई है। महाराष्ट्र की बहुसंख्यक आबादी मराठी बोलती है और मराठी भाषा को अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान का मूल तत्व मानती है। कई मराठी संगठन और शिवसेना व मनसे जैसे राजनीतिक दल मराठी भाषा और संस्कृति की रक्षा के पक्षधर हैं।
इस विवाद का सबसे बड़ा कारण मुंबई और अन्य शहरी क्षेत्रों में उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश से बड़ी संख्या में हिंदी भाषी लोग रोजगार की तलाश में आए हैं। इससे जनसंख्या और सांस्कृतिक संतुलन में बदलाव आया, जिसे कुछ स्थानीय लोग राजनीतिक दल भाषायी और स्थानीयता के संकट के रूप में देखते हैं।
मराठी भाषी लोगों का मानना है कि बाहर से आए लोगों ने स्थानीय संसाधनों और नौकरियों पर कब्जा कर लिया है। जिससे स्थानीय लोगों के सामने राेजगार का संकट पैदा हो गया। साथ कई बार इसे राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया।
हिंदी बनाम मराठी का विवाद आज का नहीं है। यह विवाद काफी लंबे समय से चला आ रहा है। 1960 के दशक में मुंबई में बड़ी संख्या में गुजराती, उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय लोग व्यापार, नौकरियों और उद्योगों के लिए आकर बसने लगे थे। इससे मराठी लोगों को यह लगने लगा कि बाहरी लोग उनके अवसर छीन रहे हैं।
बालासाहेब ठाकरे की सभा (फोटो-सोशल मीडिया)
इसके विरोध में बाल ठाकरे ने “मराठी मानूस” (मराठी व्यक्ति) के अधिकारों की रक्षा के लिए 1966 में शिवसेना की स्थापना की और मराठी लोगों मराठी अस्मिता की लड़ाई लड़ी।
गुजराती समुदाय विशेष रूप से व्यापार में माहिर रहा है और उन्होंने मुंबई में बड़े पैमाने पर व्यवसाय खड़े किए। इससे शिवसेना को यह आशंका हुई कि मुंबई के व्यापार पर गुजराती समुदाय का एकाधिकार बन सकता है, जिससे मराठी समुदाय आर्थिक रूप से पिछड़ सकता है।
मुंबई में गुजराती भाषा, संस्कृति और त्योहारों की बढ़ती उपस्थिति को कुछ मराठी लोगों ने अपनी सांस्कृतिक पहचान के लिए खतरे के रूप में देखा। शिवसेना ने इस सांस्कृतिक वर्चस्व के खिलाफ भी आवाज उठाई।