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जयंती विशेष: लाल बहादुर शास्त्री कैसे बने पीएम, क्यों दिया जय जवान-जय किसान का नारा, ताशकंद में क्या हुआ? जानिए पूरी कहानी

लाल बहादुर शास्त्री की जयंती के मौके पर हम उनके पीएम बनने से लेकर ताशकंद में दिल का दौरा पड़ने तक का वह सारा हाल-ए-बयां लेकर आए हैं जो आपको रोमांचित कर देगा। इस आर्टिकल को एक कहानी की तरह पढ़िए। गर्वित होकर आंख से आंसू ढलक जाएं तो भारत के लाल को सच्ची श्रद्धांजलि हो जाएगी।

  • By अभिषेक सिंह
Updated On: Oct 02, 2024 | 12:13 AM

लाल बहादुर शास्त्री (सोर्स-सोशल मीडिया)

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नवभारत डेस्क: देश आज यानी 2 अक्टूबर 2024 को पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की 120वीं जयंती मना रहा है। लाल बहादुर शास्त्री ने अपने छोटे से कार्यकाल में वो बड़े कारनामे किए जिसने आज के भारत की नींव रख दी थी। आज उनकी जयंती के मौके पर हम उनके पीएम बनने से लेकर ताशकंद में दिल का दौरा पड़ने तक का वह सारा हाल-ए-बयां लेकर आए हैं जो आपको रोमांचित कर देगा। इस आर्टिकल को एक कहानी की तरह पढ़िए। गर्वित होकर आंख से आंसू ढलक जाएं तो भारत के लाल को सच्ची श्रद्धांजलि हो जाएगी।

चलिए कहानी शुरू करते हैं। 27 मई 1964 को दोपहर 1 बजकर 30 मिनट पर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने दुनिया को अलविदा कह दिया। 2 बजे संसद में इसका आधिकारिक ऐलान हुआ। नेहरू की मौत के बाद कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता गुलज़ारी लाल नंदा को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बना दिया गया। लेकिन अहम सवाल ये था कि नेहरू के बाद कौन?

नेहरू की मौत ने खड़ा किया यक्ष प्रश्न

नेहरू के बाद कई नाम सामने आये जैसे के कामराज, जो कि उस वक्त कांग्रेस के अध्यक्ष थे। दूसरा गुलज़ारी लाल नंदा जो वरिष्ठ थे और कार्यवाहक प्रधानमंत्री भी। तीसरा इंदिरा गांधी नेहरू की तत्कालीन वारिस और लाल बहादुर शास्त्री। जिनका सादगी और स्पष्टवादिता के चलते सियासी कद बढ़ चुका था। इन सबसे इतर एक नाम और था जो स्वयं को दावेदार घोषित कर चुका था। वह नाम है मोरारजी देसाई का।

यह भी पढ़ें:-  इस कट्टर कांग्रेसी PM के निजी सचिव रह चुके हैं रामनाथ कोविंद, जन्मदिन पर जानिए उनकी जिंदगी से जुड़ी रोचक बातें

मोरारजी देसाई नेहरू की सरकार में वित्तमंत्री रह चुके थे। जब महाराष्ट्र और गुजरात एक हुआ करता था तो वहां के मुख्यमंत्री भी रह चुके थे। दूसरी ओर लाल बहादुर शास्त्री को पद का मोह नहीं था। वो चाहते थे आपसी सहमति से प्रधानमंत्री का चुनाव हो और जयप्रकाश नारायण या इंदिरा गांधी को जिम्मेदारी सौंपी जाए। उन्होने कहा भी था कि “अगर मोरारजी चुनाव उतरते हैं तो एक बार मैं मुकाबला करने को तैयार हूं। शायद जीत भी जाऊंगा, लकिन इंदिरा जी से मुकाबला नहीं करूंगा।”

इंदिरा गांधी नहीं बनी पीएम

दूसरी ओर मोरारजी को खुद के आगे कोई दिखाई नहीं दे रहा था। कामराज भी नहीं चाहते थे कि मोरारजी प्रधानमंत्री बने। क्योंकि मोरारजी की महत्वाकांक्षाएं किसी से छिपी नहीं थी। कामराज का मानना था कि मोरारजी अगर प्रधानमंत्री बनेंगे तो न कांग्रेस का कल्याण होगा न ही देश का। लेकिन मोरारजी अपने समर्थकों को उकसाकर एक अलग ही इबारत लिखने को तैयार थे। कहा जाता है कि नेहरू खुद अपने उत्तराधिकारी के तौर पर इंदिरा को देखना चाहते थे। लेकिन इंदिरा का अनुभव कम होने की वजह से कामराज और कांग्रेस सिंडिकेट के अऩ्य नेता नहीं चाहते थे कि इंदिरा को इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जाए।

…और शास्त्री बन गए प्रधानमंत्री

तमाम उठापटक के बीच 9 जून 1964 को लाल बहादुर शास्त्री ने भारत के प्रधानमंत्री की शपथ ली। शास्त्री ने अपने कैबिनेट में इंदिरा गांधी को जगह दी थी और उन्हें सूचना और विकास मंत्री बनाया गया था। हालांकि शुरु से लेकर आखिर तक इंदिरा गांधी और शास्त्री के रिश्तों में तल्खी रही। दूसरी तरफ शास्त्री प्रधानमंत्री बने ही थे कि देश को साल भर के भीतर ही 1965 में पाकिस्तान से युद्ध की चुनौती मिल गई। इस युद्ध का परिणाम भले ही ड्रा के तौर पर देखा जाता हो लेकिन हकीकत में भारत की जीत हुई थी। 22 सिंतबर 1965 को युद्ध खत्म हुआ। लेकिन एक युद्ध भारत के भीतर भुखमरी के खिलाफ चल रहा था। देश उस वक्त अकाल के दौर से गुज़र रहा था, खाद्यान के लिए भारत दूसरे देशों पर निर्भर था।

रामलीला मैदान से लाहौर को संदेश

तारीख थी 26 सितंबर 1965 लाल बहादुर शास्त्री जब दिल्ली के रामलीला मैदान में हज़ारों लोगों को संबोधित कर रहे थे तो वो कुछ ज़्यादा ही प्रफुल्लित मूड में दिखे और उन्होने पाकिस्तान को एक संदेश दे दिया। शास्त्री ने कहा था, “पाकिस्तान के सदर अयूब ने एलान किया था कि वो दिल्ली तक चहलक़दमी करते हुए पहुंच जाएंगे। वो इतने बड़े आदमी हैं, लहीम शहीम हैं। मैंने सोचा कि उनको दिल्ली तक पैदल चलने की तकलीफ़ क्यों दी जाए। क्यों न हम ही लाहौर की तरफ़ बढ़ कर उनका इस्तेक़बाल करें।”

अमेरिका के आगे नहीं टेके घुटने

यहीं पर उन्होने जय जवान जय किसान का नारा दिया। ये नारा देने के पीछे की कहानी भी काफी रोमांचक है। 1965 की लड़ाई के दौरान अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन जॉन्सन ने शास्त्री को धमकी दी थी कि अगर आपने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ लड़ाई बंद नहीं की तो हम आपको पीएल 480 के तहत जो लाल गेहूँ भेजते हैं, उसे बंद कर देंगे। उस समय भारत गेहूँ के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था। शास्त्री को ये बात बहुत चुभी क्योंकि वो स्वाभिमानी व्यक्ति थे। उन्होंने देशवासियों से कहा कि हम हफ़्ते में एक वक्त भोजन नहीं करेंगे। उसकी वजह से अमरीका से आने वाले गेहूँ की आपूर्ति हो जाएगी।

पहले भूखा रखा खुद का परिवार

इस अपील से पहले उन्होंने पत्नी ललिता शास्त्री से कहा कि क्या आप ऐसा कर सकती हैं कि आज शाम हमारे यहाँ खाना न बने। मैं कल देशवासियों से एक वक्त का खाना न खाने की अपील करने जा रहा हूँ। मैं देखना चाहता हूँ कि मेरे बच्चे भूखे रह सकते हैं या नहीं। जब उन्होंने देख लिया कि हम लोग एक वक्त बिना खाने के रह सकते हैं तो उन्होंने देशवासियों से भी ऐसा करने के लिए कहा। अब लाल बहादुर शास्त्री पहले से काफ़ी लोकप्रिय हो गए थे। उनका, ‘जय जवान, जय किसान’ नारा लोगों के सर चढ़कर बोल रहा था।

जब हमेशा के लिए थम गया दिल

एक हार्ट अटैक झेल चुके शास्त्री जब पाकिस्तान से बातचीत करने ताशकंद गये तो लोगों की उम्मीदों का पहाड़ भी अपने साथ ले गए। भारत-चीन युद्ध की खटास को इस लड़ाई के अंजाम ने कम जो किया था। ताशकंद समझौते को लेकर देश में अलग-अलग राय बनी। कुछ को यह भारत के हित में लगा, तो कुछ ने शास्त्री को देश-विरोधी कहा। बताया जाता है कि समझौते की रात यानी 11 जनवरी 1966 को उन्होंने घर फ़ोन करके परिवार वालों की राय मांगी तो उन्हें निराशा हुई। उसी रात शास्त्री का दिल कमज़ोर पड़ा और हमेशा के लिए थम गया।

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Published On: Oct 02, 2024 | 12:13 AM

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